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नीतिश के हौवे से समाजवादी पार्टी में क्यों है इतनी बेचैनी

मुक्त विचार
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जनता दल यू के अध्यक्ष बनने के बाद नीतिश कुमार ने राष्ट्रीय राजनीति में पैर पसारने के क्रम में उत्तर प्रदेश की ओर मुंह क्या किया कि राज्य की सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी का जैसे सिंहासन ही डोल गया है। नीतिश की छवि मासूम और सरल राजनीतिज्ञ की है लेकिन सही बात यह है कि वे राजनैतिक जगत के शुरू से ही सधे हुए खिलाड़ी हैं। सही वक्त पर सही पांसे फेंकने की उनकी कला का ही नमूना रहा कि जब जनता दल का जहाज डूब रहा था उन्होंने जार्ज और शरद के साथ उस पर से छलांग लगाकर जदयू की नई नौका थाम ली और राजद का हिस्सा बनकर अपना कैरियर संवार लिया। बिहार का मुख्यमंत्री बनना उनकी सफलता का पहला पड़ाव था जिसमें उन्होंने सुशासन बाबू की छवि बनाई। बिहार जैसे राज्य में कानून व्यवस्था और विकास को पटरी पर लाकर उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में भी स्वतंत्र कद बना लिया। इसी बीच जार्ज फर्नाडींज भीष्म पितामह की नियति को प्राप्त करके रोग शैय्या पर गिर पड़े जबकि शरद यादव नेता की बजाय सैटर रहे हैं जिनकी कोई जमीनी जड़ बिहार में थी नही। इसलिए मौका देख राष्ट्रीय राजनीति में पीगें भरने के लिए उन्होंने जनता दल यू को राजग से अलग करने का फैसला कर दिया और वह भी नरेंद्र मोदी को ललकारते हुए। शरद यादव इसके विरोध में थे लेकिन वे लाचार साबित हुए। इस बीच राष्ट्रीय राजनीति में खुलकर खेलने के लिए नीतिश ने बिहार की गददी अति दलित जीतनराम मांझी को सौंप दी। हालांकि यह दाव उन्हें उलटा पड़ा। जीतनराम मांझी को शह देकर मोदी ने बिहार में ही उनकी ऊंची उड़ान को दफन करने का इंतजाम कर दिया था पर नीतिश इतने कच्चे खिलाड़ी नही थे। बहरहाल मोदी के करिश्मे को धता बताकर नीतिश ने इस बार बिहार का चुनाव जिस तरह से जीता उससे वे राष्ट्रीय राजनीति में भी महाबली बनकर उभरे हैं। अब नीतिश मौका नही चूंकना चाहते। राजनीति में तमाम परिस्थितियां अपने आप उनके अनुकूल हो रही हैं। अपने कैरियर के अदालती पटाक्षेप की वजह से लालू के सामने उनका साथ देने के अलावा कोई चारा नही है। उधर कांग्रेस में भी ऊहापोह है। अनमने राहुल शायद हमेशा के लिए अपनी मां की ही तरह प्रधानमंत्री पद का दावा छोड़ दें। ऐसे में सोनिया और राहुल अगर त्रिशंकु लोकसभा जैसी किसी परिस्थिति में प्रधानमंत्री बनाने के लिए किसी को सबसे ज्यादा सगा समझेंगी तो वे नीतिश ही होगे और नीतिश इसीलिए उनकी अपने प्रति सदभावना को मजबूत करने का कोई मौका नही छोड़ रहे। एक वर्ष पहले तक यह माना जा रहा था कि नरेंद्र मोदी को एक दशक तक सत्ता से कोई हिला नही पायेगा। लेकिन अब यह विश्वास उनके अपने कटटर समर्थकों तक में डिगने लगा है। नीतिश की तेजी का एक कारण यह भी है।
पर नीतिश की सक्रियता से मोदी या बीजेपी से ज्यादा और सर्वाधिक भयभीत समाजवादी पार्टी है। वाराणसी और लखनऊ उत्तर प्रदेश में दो स्थानों पर राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद नीतिश ने कार्यक्रम किये जिनमें कोई ऐसी भीड़ नही जुटी जिससे फिलहाल लगे कि उत्तर प्रदेश में वे आने वाले विधानसभा चुनाव में कोई करिश्मा करने जा रहे हैं। फिर भी रामगोपाल यादव से लेकर राजेंद्र सिंह चैधरी तक ने जिस तरह से उनके प्रति भड़ास निकाली है वह किसी हताश योद्धा की मानसिकता को दर्शाता है। इतना ही नहीं उनका वाराणसी के पुडौंर में जदयू के प्रांतीय सम्मेलन के खत्म होते-होते बेनीप्रसाद वर्मा की उनकी शर्तों पर समाजवादी पार्टी ने घर वापसी करा ली। जब समाजवादी पार्टी बनी थी उस समय बेनी का रुझान वीपी सिंह की ओर था लेकिन याराना मुलायम सिंह के प्रति था। मुलायम सिंह कुछ जिलों में बेनी प्रसाद वर्मा के चक्रवर्ती सम्राट जैसे साम्राज्य को जानने की वजह से उनके हाथ पैर जोड़ने में कोई कसर नही छोड़ रहे थे। आखिरी में जब वे बेनीप्रसाद वर्मा के घर जाकर उनके साष्टांग हुए तब कहीं बेनी बाबू सपा के स्थापना सम्मेलन में आये। लेकिन बेनी का कद अब वैसा नही रह गया। इस बीच अपने गढ़ में भी उनके प्रभाव का बुरी तरह क्षरण हो चुका है। फिर भी नीतिश कहीं कुर्मी वोटों पर हाथ न मार ले जायें इसकी काट के लिए बेनी को गले लगाना मुलायम को रास आया।
बेनी जब देवगौड़ा सरकार में संचार मंत्री थे तब अपने मंत्रालय के टेंडरों में अमर सिंह के दखल की वजह से उनका गुस्सा फट पड़ा था और उन्होंने सार्वजनिक रूप से अमर सिंह को भड़ुआ तक कहने में गुरेज नही किया था। मुलायम सिंह को इसका बहुत बुरा लगा था लेकिन उस समय उन्हें बेनी प्यारे नही रह गये थे बल्कि अमर सिंह ही उनके सब कुछ बन गये थे। तब सरकार की बदनामी बचाने के लिए देवगौड़ा के सुझाव पर मुलायम सिंह ने पहली बार अमर सिंह को समाजवादी पार्टी में किसी पद से नवाजा था और वह भी अपने बाद सबसे बड़ा महासचिव का पद। मुलायम सिंह और बेनी बाबू के बीच बढ़ी दूरी की शुरूआत यहीं से हुई थी। अमर सिंह के प्रति उनके मन में आज भी तिक्तता कम नही हुई है यह बात रामगोपाल यादव और आजम खां दोनों जानते हैं इसलिए उन्होंने बेनी बाबू को पार्टी में वापस लाकर अपनी ताकत बढ़ाने का प्रयास किया और नीतिश फोबिया की वजह से वे लोग पुरानी गालियां भुलाकर बेनी की सपा में वापसी के लिए मुलायम सिंह को फुसलाने में कामयाब रहे। बेनी की घर वापसी के लिए कांग्रेस का माहौल भी जिम्मेदार रहा। भले ही वे स्वच्छ राजनीति के प्रतिमान न हों लेकिन मुलायम सिंह से ज्यादा सिद्धांतवादी हैं लेकिन कांग्रेस में इतनी ठोकरें खाने के बावजूद भी पिछड़ा विरोधी माहौल सुधर नही पाया है जिसकी वजह से बेनी बाबू वहां घुटन महसूस करने लगे थे।
बहरहाल नीतिश से मुलायम को वास्तव में कितना नुकसान होने जा रहा है और बेनी बाबू उसे रोकने में मुलायम की कितनी मदद कर पायेंगे यह एक अलग प्रश्न है। लेकिन मुख्य बात यह है कि मुलायम सिंह की एक प्रवृत्ति शुरू से देखने को मिली है कि चाहे भाजपा मजबूत हो जाये या कांग्रेस लेकिन लोकदल परंपरा की राजनीति में उन्हें और उनके परिवार के अलावा किसी और को सर्वोच्चता मिलना उनकों गंवारा नही है। उनकी इसी विभीषणी सोच की वजह से जनता दल टूटा। साम्प्रदायिक शक्तियां मजबूत हुई और आज भी वे इसी सोच पर कायम हैं। उन्हें लगता है कि वे तो सामाजिक न्याय और धर्म निरपेक्षता की राजनीति में इतना विश्वाघाती जोड़तोड़ करके भी देश के सर्वोच्च कार्यकारी पद यानि प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा नही कर पाये जबकि वीपी सिंह, देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल के बाद अब नीतिश कुमार भी लोकदल राजनीति की कोख से प्रधानमंत्री पद की मंजिल पर चढ़ने के लिए मजबूत पायदान तैयार करने में सफल हो रहे हैं। यह उन्हें बर्दास्त नही है। पर जो लोग विचारधारा के नाते सामाजिक न्याय की राजनीति से जुडे़ हैं उन्हें मुलायम सिंह की परिवारवादी और अवसरवादी राजनीति से किसी सार्थक बदलाव की उम्मीद नही है इसलिए उनका रुझान नीतिश कुमार की ओर होना स्वाभाविक है। विधानसभा चुनाव में बड़ी सफलता मिले या न मिले लेकिन लोकदल राजनीति के बिखरे शीराजे में नीतिश कुमार ताजगी भरे विकल्प के रूप में उभरे हैं जो आगे चलकर निश्चित रूप से उत्तर प्रदेश में भी बड़ा गुल खिलायेंगे। इसमें दोराय नही है।

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