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सनसनीखेज मामलों से शिवपाल का ही नाम क्यों जुड़ता है बार-बार

मुक्त विचार
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इटावा में चुनावी नामांकन के दौरान चली गोली में डयूटी पर तैनात दरोगा आरपी सिंह की मौत, उन्नाव में एमएलसी अजीत सिंह की हत्या और ऐसे ही कई और सनसनीखेज मामले हैं जो कि समय-समय पर प्रदेश में कायम हुई समाजवादी पार्टी की सरकार के कार्यकाल में सामने आये और जिनकी गुत्थी आज तक नही सुलझ पाई है। यह भी एक संयोग है कि ऐसे सारे सनसनीखेज मामलों में कानाफूसी में शक की सुई शिवपाल सिंह यादव की ओर घूमी और अब ताजा मामला मथुरा की प्रदेश की समूची राजनीति को झकझोर कर रख देने वाली उस हिंसा का है जिसमें पुलिस के दो जाबांज अफसरों के साथ 27 लोगों की जान अभी तक जा चुकी है।
मथुरा कांड को लेकर जो रिपोर्टिंग हो रही है वह रामवृक्ष यादव की बददिमाग कारगुजारी और उससे निपटने में प्रशासन द्वारा बरती गई लापरवाही पर मुख्य रूप से केंद्रित होकर रह गई है। हालांकि सरकार में बैठे लोग अगर कहीं से इसके जिम्मेदार हैं तो यह बिंदु इन सबसे बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है। जिससे आभास मिलता है कि देश में लोकतंत्र किस तरह बाहुबलियों के शिकंजे में फंसकर बेमानी हो चुका है। पानी सिर से ऊपर हो जाने के बावजूद लोग प्रतिकार के लिए जागने की बजाय बहती गंगा में जितना हो सके हाथ धो लेने के लिए मस्त हैं जो इस स्थिति की भयावहता को और ज्यादा गहरा देने वाला तथ्य है।
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने खुले आम कहा है कि मथुरा में इतनी बड़ी अराजकता और हिंसा मुख्यमंत्री के चचाजान और प्रदेश के सबसे कददावर मंत्री शिवपाल सिंह यादव के कारण हुई है। इसके बाद शनिवार को बसपा सुप्रीमों मायावती ने भी मथुरा कांड का ठीकरा शिवपाल के सिर फोड़ने में कसर नही छोड़ी। हालांकि शिवपाल सिंह यादव ने अपने ऊपर लगे आरोपों को बकवास करार देते हुए मथुरा मामले की निष्पक्ष जांच कराने का आश्वासन दिया है। यह दूसरी बात है कि वे निष्पक्ष जांच के लिए मामला सीबीआई को सौंपनें की मांग पर हाथ रखने देने को तैयार नही हैं।
समाजवादी सुप्रीमों मुलायम सिंह यादव धर्म निरपेक्षता, हिंदी को उसका दर्जा दिलाने और ऐसे ही कई अन्य कई मामलों में दृढ़ प्रतिबद्धता दिखा चुके हैं। आज जबकि देश में विचारधारा की राजनीति दम तोड़ चुकी है तब कई ऐसे गुण थे जिनकी वजह से मुलायम सिंह एक युगातंरकारी भदेस नेता के रूप में राष्ट्रीय राजनीति में अपने आप को प्रतिष्ठित कर सकते थे। लेकिन लोकतंत्र में पूरी तरह आप्रासंगिक बाहुबल के प्रति मोह और परिवारवाद की पराकाष्ठा ने उन्हें ऐसे शिखर पर पहुंचने से न केवल रोक दिया बल्कि उनकी पहचान को नकारात्मक रूप में बदल डाला। अखिलेश के अंदर जो राजनीतिक गुण और विकास के मामले में दूरंदेशी हैं उसके चलते उन्हें मुख्यमंत्री बनाये जाते समय वंशवाद के लिए हुई मुलायम सिंह की आलोचना काफी हद तक बेमानी हो गई लेकिन उनके कुनबे में हर कोई अखिलेश जितना होनहार नही है पर पूरे कुनबे को थोपने की उनकी हठधर्मिता से अखिलेश को प्रदेश की सरकार की कमान सौंपकर उन्होंने हाल के महीनों में जो पुण्य कमाया था उसकी चमक मिट जाने का अंदेशा पैदा हो गया है।
अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद अपना अधिकार छिनने की भावना से पीड़ित शिवपाल ने अलग हटकर पहचान बनाने के लिए मीडिया में आचार्य नरेंद्रदेव से लेकर डाॅ. राममनोहर लोहिया तक सभी समाजवादी विचारधारा के महापुरुषों के बारे में लेख प्रकाशित कराना शुरू किये थे तांकि वे भी थिंकटैंक की हैसियत प्राप्त करके अपने राजनैतिक व्यक्तित्व में पूर्णता ला सकें। लेकिन उनके भाषण को प्रत्यक्ष रूप से सुनने और इसके बाद उनके नाम से प्रकाशित गंभीर लेखों को पढ़ने के बाद जनता में उनके प्रति अच्छा इंप्रेशन कायम होने की बजाय विद्रूप बढ़ रहा था। जाहिर है कि केवल मुलायम सिंह भाई होने की वजह से उनके जैसी यशप्रियता, समाज में स्वीकार्यता पाने की भावना शिवपाल में भी पैदा हो यह जरूरी नही था। शिवपाल मूल मे जो हैं अपने को बदलने की कितनी भी कोशिश करने के बावजूद अंततोगत्वा वे उससे परे नही हो सकते। इसलिए 18 मई 2012 को जब बाबा जय गुरुदेव का देहावसान हुआ तो उनकी 15 हजार करोड़ की अनुमानित संपत्ति के लिए उनका उत्तराधिकारी मनोनीत कराने में दखल देने से वे अपने को कैसे रोक पाते। बाबा जय गुरुदेव के ड्राइवर रहे पंकज यादव का उनके उत्तराधिकारी के बतौर चयन अपने आप हो गया होगा। यह कोई भोला या मूर्ख आदमी ही विश्वास कर सकता है। बहरहाल बाबा के 1976 से शिष्य रहे रामवृक्ष यादव भी उत्तराधिकार के दावेदार थे लेकिन उन्हें संघर्ष में मुंह की खानी पड़ी। इसके बाद उन्होंने एक जनवरी 2014 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की फंतासी प्रेरणा में ग्रसित होकर क्रांतिकारी मांगों के साथ पूर्वांचल, मध्यप्रदेश और झारखंड के अपने ही तरह के सनकी लोगों की जमात इकटठी कर सागर से दिल्ली के लिए कूंच का कार्यक्रम बनाया। लेकिन बीच में ही थकान हो जाने की वजह से वे मथुरा के सबसे बड़े सार्वजनिक पार्क में डट गये यहां दो दिन धरना देने की मोहलत उन्हें प्रशासन ने दी थी लेकिन उन्होंने स्थाई डेरा जमा लिया। चर्चा यह है कि 270 एकड़ के इस पार्क पर रामवृक्ष यादव को मोहरा बनाकर कब्जा करने का दूरगामी तानाबाना बुना गया था। जिसकी वजह से प्रशासन को उनके सामने लाचार बनाकर दो साल तक रखा गया। इसी बीच विजय पाल सिंह तोमर की जनहित याचिका पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पार्क खाली कराने के आदेश मथुरा के प्रशासन को दिये। यह बात भी बहुत उजागर है कि समाजवादी पार्टी के सुप्रीमों के परिवार में भी आपसी प्रतिद्वंदिता छिड़ी हुई है। विधानसभा चुनाव के लिए प्रभारी बनाये जाने और अमर सिंह की पार्टी में वापसी कराने के चलते शिवपाल का घरेलू राजनीति में अपरहैंड हो गया था। इसी उत्साह में उन्होंने अजीत सिंह को भी सपा के बैनर से राज्यसभा में पहुंचाने की भूमिका रच ली। लेकिन तब तक रामगोपाल यादव ने शायद अखिलेश को सहमत कर लिया कि अगर इस तरह से शिवपाल बहुत ज्यादा हावी हो गये तो तुम्हारे लिए दूसरे कार्यकाल में मुश्किल हो सकती है। अनुमान यह है कि इस कारण अखिलेश और शिवपाल की टयूनिंग में कुछ दिनों से कमी आई है। अखिलेश सशंकित हैं इसलिए उन्होंने मथुरा के प्रशासन पर तत्काल हाईकोर्ट के आदेश पर अमल कराने को कहा। लेकिन वहां के अधिकारी कहीं और से भी निर्देश प्राप्त कर रहे थे। इसलिए एसएसपी ने मौके पर जाना गंवारा नही किया। हालांकि उन्हें यह उम्मीद नही रही होगी कि रामवृक्ष यादव पुलिस के साथ इतना बड़ा दुस्साहस कर सकते हैं लेकिन एक सनकी आदमी का अगर कोई पीछे से मनोबल बढ़ाने वाला हो तो वह क्या नही कर सकता। बहरहाल मथुरा के एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी और एसओ फरहा संतोष यादव आधी-अधूरी तैयारी से मौके पर भेजे जाने के कारण बलि का बकरा बन गये। मथुरा कांड को लेकर जैसे-जैसे सत्ता के अंतःपुर के कलह की कहानी फोकस में आती जायेगी वैसे-वैसे आसन्न चुनावी बेला में बहुत अच्छी पारी खेल रहे अखिलेश के लिए मुसीबतें बढ़ती जायेंगी। हो सकता है कि शिवपाल के बारे में पूर्वाग्रह के कारण बढ़ाचढ़ा कर बातें कहीं जा रही हों। लेकिन इसकी बेहतर काट तभी संभव है जब मथुरा मामले की जांच सीबीआई को सौंपी जाये। विधिक मामलों की अनभिज्ञता की वजह से अलीगढ़ के कमिश्नर को सौंपी गई जांच चैनल न्यायिक जांच बता रहे हैं लेकिन अगर वास्तव में हाईकोर्ट के किसी वर्तमान या सेवानिवृत्त जज से इसकी न्यायिक जांच भी करा ली जाये तो प्रदेश सरकार की विश्वसनीयता मजबूत हो सकती है। क्या मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इन विकल्पों पर गौर फरमायेंगे।
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