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शिवपाल के खिलाफ आक्रामक भाजपा, रामगोपाल की मौन सहमति

मुक्त विचार
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चोट भाजपा को लगती थी लेकिन दर्द सपा को होता था, यह कुछ दिन पहले की ही बात है। ललित मोदी की मदद के लिए विपक्ष विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को घेर रहा था तो प्रोफेसर रामगोपाल यादव प्रतिवाद के लिए कितने कर्कश हो गये थे। विजय माल्या के मामले में संसद न चलने देने के विपक्ष के रुख के समय भी वे भाजपा के प्रति हमदर्दी दिखाने से नही चूंके थे। पिछले कुछ समय से सरकार और भाजपा के हर धर्म संकट में समाजवादी पार्टी ने उसके सबसे सगे की भूमिका निभाने को अपना धर्म मान लिया था। लेकिन सपा और भाजपा के मधु मिलन का यह दौर अब बीत चुका है। मथुरा कांड में भाजपा उसके साथ इस सौहार्द का कोई लिहाज करने को तैयार नही है। केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह तक शालीनता की केंचुल फेंक कर शिवपाल सिंह का नाम लेकर मथुरा मामले की जांच सीबीआई से कराने की सलाह सार्वजनिक रूप से अखिलेश सरकार को दे चुके हैं। यह बताने की जरूरत नही है कि कानून व्यवस्था के मामले में केंद्रीय गृह मंत्री का मुख्यमंत्री के लिए कुछ कहना सिर्फ सलाह नही बल्कि निर्देश होता है।
लेकिन मथुरा मामले की कुछ और भी जटिलताएं हैं। यह मामला जिस तरह का मोड़ ले चुका है। उसमें शिवपाल सिंह की स्थिति चक्रव्यूह में अकेले घिरे महाभारत के अभिमन्यु की तरह नजर आ रही है। उन्हें मथुरा हिंसा का षणयंत्रकर्ता साबित करने की शुरुआत भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने की थी लेकिन उन्हें बड़बोला मान नजरंदाज कर दिया गया होता लेकिन जब राजनाथ सिंह और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने भी न केवल उनके सुर में सुर मिला दिया बल्कि उनसे भी ज्यादा आतिशी बयानबाजी शिवपाल सिंह के खिलाफ की। बावजूद इसके शिवपाल का बचाव करने के मामले में सपा में शिखर स्तर पर अन्यमनस्कता का माहौल है। सपा मुखिया मुलायम सिंह और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव दोनों ने ही शिवपाल सिंह पर लगे आरोपों का प्रतिवाद करने के लिए वैसे तेवर अभी तक नही दिखाये जिनके लिए वे मशहूर हैं। प्रो. रामगोपाल यादव से तो इसकी उम्मीद ही खैर क्यों की जाये। उनके और शिवपाल के बीच छत्तीस का आंकड़ा पुराना है।
सपा परिवार में इस अदावत की शुरूआत 2004 में ही हो गई थी। उस समय सैफई महोत्सव में खुलेआम देखा गया था कि शिवपाल सिंह का ज्यादा दबदबा बन जाने से नाराज रामगोपाल यादव मुलायम सिंह द्वारा लाउडस्पीकर पर पुकारे जाने के बावजूद मंच पर नही पहुंचे थे। अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने के समय जो स्थितियां थी उनमें वे मासूम शहंशाह के बैरम खां बन गये थे और उनका यह जलवा साढ़े तीन वर्ष चला। लेकिन इसके बाद पंचायत चुनाव तक वक्त ने जैसे करवट बदल दी और शिवपाल के हाथ में बागडोर चली गई।
बात मुगलों की चली है तो याद किया जाना चाहिए पारिवारिक साम्राज्य में अपने ही सबसे बड़े दुश्मन बनते हैं। मुगलों का इतिहास इसका गवाह है। शायद सपा में भी मुगलों का यह इतिहास दोहराव पर है। शिवपाल और रामगोपाल के बीच नहले पर दहले का एक एपीसोड अभी हाल में खेला गया। पहला दांव रामगोपाल का रहा जब अमर सिंह की पार्टी में वापसी की पैरवी कर रहे शिवपाल को झटका देते हुए उन्होंने बेनीबाबू को पार्टी में शामिल करा लिया तांकि वे अमर सिंह की आमद पर रोक लगा सकें। संयुक्त मोर्चे की सरकार के समय जब बेनीबाबू संचार मंत्री थे तो उनके विभाग के टेंडर अमर सिंह द्वारा अपने लोगों के नाम कराये जाने से बौखलाकर बेनी बाबू ने सार्वजनिक रूप से उन्हें दलाल आदि कहते हुए गरियाया था। बेनी बाबू का मन अभी तक अमर सिंह को लेकर उतना ही कड़वा है लेकिन क्या करें वे भी वक्त के मारे हैं। इसलिए उनसे रामगोपाल की उम्मीद पूरी नही हो सकी। शिवपाल ने उस समय रामगोपाल के नहले पर दहला जड़ दिया जब उनके और आजम खां के भरपूर विरोध के बावजूद मुलायम सिंह ने अमर सिंह को राज्यसभा चुनाव के लिए पार्टी का उम्मीदवार तय कर डाला।
संसदीय राजनीति में पार्टी की भूमिका रामगोपाल ने जिस तरह से तय की उसकों देखते हुए भाजपा जरूर ही उनकी अभी भी एहसानमंद होगी। उधर भाजपा मथुरा कांड को लेकर सत्तू बांधकर शिवपाल के पीछे पड़ गई है। क्या इन दोनों स्थितियों में कोई संबंध है। अगर भाजपा के रवैये में कुछ लोग रामगोपाल का प्रायोजन देखने की कोशिश कर रहे हैं तो इसे असंगत मानकर एकदम खारिज करना मुनासिब नही होगा। हालांकि यह भी सच है कि भाजपा सिर्फ किसी के लिए इस्तेमाल होने की गरज से मथुरा मामले में तींखे तेवर नही अपना रही। इसमें उसके भी बड़े हित हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को अपनी दम पर बहुमत मिलने का पूरा श्रेय उत्तर प्रदेश को था। अगर उसे उत्तर प्रदेश में 73 सीटें न मिली होती तो मोदी को गठबंधन सरकार चलानी पड़ती जिसमें वे आज की तरह खुला खेल फर्रुखाबादी नही खेल सकते थे। 2019 में दिल्ली में फिर वापसी के लिए भाजपा को उत्तर प्रदेश का यह अटूट समर्थन अक्षुण्ण रखना होगा।
इसलिए भाजपा ने विधानसभा चुनाव का रणक्षेत्र सजते ही उत्तर प्रदेश में अपनी पूरी ऊर्जा झोंकना शुरू कर दी है। इस मंसूबे के लिए मथुरा के अभूतपूर्व हिंसक घटनाक्रम को उसने लाॅचिंग पैड की तरह संज्ञान में लिया है। मथुरा कांड के तूल पकड़ने से केवल शिवपाल की ही मुसीबत नही हुई है। बल्कि अखिलेश ने अपनी सरकार को रिपीट करने के लिए हाल के महीनों में जो कामयाब मशक्कत की थी मौजूदा माहौल बता रहा है कि मथुरा के घटनाक्रम के बाद उस पर पोंछा फिर चुका है। रातोंरात बहुतों को भाजपा का ग्राफ प्रदेश की नंबर एक पार्टी के स्तर तक ऊंचा उठ जाने का अंदाजा हो रहा है। माना रामगोपाल शिवपाल को सबक सिखाना चाहते हों लेकिन पार्टी की दुर्दशा में तो वे सहभागी नही हो सकते। यह सवाल बाजिव है लेकिन इसकी दो वजह हैं। एक तो यह कि बदले की भावना ही भस्मासुर बनाती है। दूसरे घटनाक्रम जिस तरह का मोड़ ले गया उसमें रामगोपाल अब कोई हस्तक्षेप करने की स्थिति में भी नही रह गये।
मुलायम सिंह और अखिलेश इस मामले को लेकर असमंजस में हैं। मथुरा के मामले में शिवपाल सिंह ने जिस तरह का तानाबाना बुना था उसे लेकर अपना स्वतंत्र और समानान्तर साम्राज्य खड़ा करने के उनके मंसूबे का हौवा दिखाकर मुलायम सिंह और अखिलेश को कहीं न कहीं उनके प्रति शंकालु बना दिया गया है। दूसरी ओर मथुरा मामले की नई-नई परतें उघड़ रहीं हैं। रामवृक्ष यादव की बेहद आपत्तिजनक, गैरकानूनी और आतंकवादी कारगुजारी के बावजूद उन्हें दंडित न कर 270 एकड़ के जवाहर बाग का पटटा उनके संगठन को 99 साल के लिए करने के कागज तैयार हो चुके थे। क्या सरकार के किसी बड़े बिगगन की मंशा के बिना यह संभव था। अखिलेश ने मामले की जांच सीबीआई को सौंपने का आग्रह तो नही माना है लेकिन हाईकोर्ट के एक रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में न्यायिक आयोग का गठन जरूर कर दिया है। क्या यह आयोग मथुरा कांड के लिए नेपथ्य में भूमिका निभा रहे चेहरों को बेनकाब कर पायेगा।ramgopalshiv yadav

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