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संवैधानिक स्तंभों की टकराहट से चरमरा न जाये व्यवस्था

मुक्त विचार
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जाति और धर्म के आधार पर बंटे जिस देश में व्यवस्था संवैधानिक न्याय की बजाय मत्स्य न्याय से चलती हो, जहां सिद्धांत की बजाय अस्मिता की राजनीति होती हो उस देश में तकनीकि फैसलों से कोई सुधार तब तक नही हो सकता जब तक कि राजनीतिक और सामाजिक सुधारों के जरिये इसके लिए उचित प्लेटफार्म तैयार न हो जाये। यह तथ्य कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच रार के इस दौर में बहुत महत्वपूर्ण है।
उच्चतम् न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस टीएस ठाकुर ने कहा है कि कार्यपालिका जब अपने संवैधानिक कर्तव्य को निभाने में विफल होती है तभी न्यायिक हस्तक्षेप होता है। दूसरी ओर राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से लेकर प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्री तक कार्यपालिका और विधायिका की सारी बड़ी हस्तियां सभी संवैधानिक संस्थाओं से अपने लिये तय लक्ष्मण रेखा के दायरे मे रहकर काम करने की सलाह सार्वजनिक रूप से देने में लगे हुए हैं।
सबके अपने-अपने तर्क हैं। न्यायपालिका के पास गिनाने के लिए बहुत फैसले हैं जिनसे यह साबित हो कि विधायिका और कार्यपालिका ने आपातकालीन तकाजे के बावजूद जिन जरूरी कामों को अपनी अकर्मण्यता की भेंट चढ़ा रखा था वे तब हो सके जब न्यायपालिका ने हस्तक्षेप किया। लेकिन इतनी तत्पर न्यायिक सक्रियता के बावजूद दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र में जितनी गुणवत्तापूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए क्या उसका रंच मात्र भी स्वरूप दिखाई पड़ता है। बल्कि व्यवस्था इतनी चैपट है कि लोग अंग्रेजों के गुलामी के शासन को बेहतर मानते दिख रहे हैं। खराब व्यवस्था के कारण ही उन्नत आर्थिक विकास सूचकांक के बावजूद देश में आम लोग दुख और वंचना के शिकार हैं। खुशहाली सूचकांक में भारत पाकिस्तान से भी पीछे है।
दुनियां में कई तरह के लोकतंत्र हैं। विकसित देशों के लोकतंत्र में सामाजिक सुधार की प्रक्रिया शताब्दियों पहले पूरी हो चुकी है। वर्तमान में वहां कमोवेश व्यवस्था में स्थिरता है। जिससे सत्ता में पार्टियों के आने-जाने से उन देशों के कार्य संचालन पर कोई खास असर नही पड़ता। लेकिन एक भारत को लोकतंत्र है जो सामाजिक जटिलताओं की वजह से कई यक्ष प्रश्नों से जूझ रहा है। तमिलनाडु में राजनीति लंबे समय से क्षेत्रीय दलों की बंधक बनी हुई है। क्योंकि कई मर्तबा यह स्थिति सामने आ चुकी है कि वहां के लोगों के लिए राष्ट्रीय तकाजों की तुलना में तमिल गौरव का महत्व ज्यादा है और वे विशाल भारतीय राष्ट्रराज्य में अपनी पहचान गुम न हो जाये इस अंदेशे को लेकर जरूरत से ज्यादा सतर्क रहते हैं। एक समय महाराष्ट्र में भी मराठा गौरव राष्ट्रीय तकाजों से ऊपर हो गया था। लेकिन वहां के लोगों को आखिर राष्ट्रीय बोध रास आया जिससे पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा से उसका सहयोगी दल शिवसेना दोयम दर्जें पर पहुंच गया। अस्मिता की आक्रामक राजनीति की बदौलत महाराष्ट्र में छा जाने का राज ठाकरे का स्वप्न उद्धव के मुकाबले बेहतर नेतृत्व क्षमता रखने के बावजूद राज्य के लोगों की बदली सोच के वजह से ही ध्वस्त हो गया। बिहार और उत्तर प्रदेश जबसे सामाजिक न्याय की प्रयोगशाला बने हैं तबसे इन राज्यों के वाशिंदों के लिए सुशासन से ज्यादा महत्वपूर्ण अपने सामाजिक वर्ग का दबदबा है। इसलिए आपत्तिजनक कार्यशैली के बावजूद मुलायम सिंह और मायावती के प्रभाव विस्तार को लगातार मान्यता मिल रही है।
इसके अलावा और भी विलक्षणतायें हैं जो गौरतलब हैं। वंचितों और पीड़ितों के लिए जिन्हें अभी तक सांस्थानिक न्याय कोई संबल नही दे पाया है। उन्हें पहले के तरह ही महाबलियों में आस्था है। जिनकी तत्काल की कृपा उनका उद्धार कर देती है। ऐसे लोगों को राजनीति के अपराधीकरण की चिंताएं संवेदित नही कर पा रहीं तो इसमें आश्चर्य क्या है।
जाहिर है कि ऐसे देश में तकनीकी चपलता से स्थितियों में बदलाव नही हो सकता। बाबा साहब अंबेडकर ने आजादी के पहले और संविधान लागू हो जाने के बाद भी कई बार चेतावनी दी थी कि बेहतर राजनैतिक प्रणाली तब तक फलित नही हो सकती जब तक कि उसे लागू करने के पहले अपेक्षित सामाजिक सुधार न किये जायें। लोकतंत्र व कानून के राज की देश में अभी तक कुल जमा नाकामयाबी ने उनकी धारणा को सत्य साबित कर दिया है। पर सामाजिक सुधार कौन करेगा। क्या न्यायपालिका? नही! इसके लिए राजनीतिक तंत्र में पहलकदमी की इच्छाशक्ति होनी चाहिए। राजनीतिक तंत्र द्वारा अंतिम क्रांतिकारी परिवर्तन राजीव गांधी के सरकार के समय 73वें और 74वें संवैधानिक सुधारों के जरिये हुआ था। जिससे ग्रास रुट लेबिल पर वंचितों के हाथ में सत्ता की बागडोर पहुंचाने का उपक्रम शुरू हुआ। इन संशोधनों के लिए प्रेरणा न्यायपालिका से नही मिली थी। राजनीतिक तंत्र ने खुद यह फैसला लिया था क्योंकि उसके पास बदलते समाज को समझने की छठी इंद्रिय रहती है जो किसी और संस्था में उतने पैनेपन से संभव नही है।
न्यायपालिका के कार्यकारी मामलों में अत्यधिक हस्तक्षेप ने राजनीतिक तंत्र का स्वविवेक कुंद कर दिया है। उसमें यह भावना पनप चुकी है कि प्रभावशाली निहित स्वार्थों को नाराज करने वाले फैसले वह क्यों करें। उसे इंतजार रहता है अदालतों का और लोग भी न्यायपालिका को लेकर इतना मुगालता पाल चुके है कि उनमें राजनैतिक संस्थानों की अकर्मण्यता पर गुस्सा क्वथनांक के स्तर तक नही भड़कता क्योंकि न्यायपालिका पर जरूरत से ज्यादा भरोसा उनके गुस्से के विस्फोट के लिए सैफ्टीबाॅल का काम कर रहा है। नतीजा यह है कि न्यायिक सक्रियता के बावजूद राजनीतिक तंत्र के सुसुप्तावस्था में चले जाने से कोई सार्थक कार्रवाई समस्याओं के निदान के लिए नही हो पा रही है।
सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि तालाबों से अतिक्रमण हटवाकर उनके पुराने स्वरूप की बहाली की जाये। 2007 में इस आदेश से क्या तालाब अतिक्रमण मुक्त हो पाये हैं। अगर कार्यपालिका ने इस मामले में न्यायपालिका के आदेश पर अमल करने में रुचि नही ली तो न्यायपालिका उसका क्या उखाड़ पायी। उत्तर प्रदेश में उच्च न्यायालय में कुछ महीने पहले हर शिकायत की एफआईआर लिखने के आदेश पुलिस को दिये थे। क्या इस पर उसने अमल करा पाया है। किसी की बाइक उत्तर प्रदेश में चोरी हो जाती है तो थाने में तुरंत मुकदमा नही लिखा जाता। कई बार टहलाने के बाद पीड़ित से सुविधाशुल्क मिल जाने पर ही मुकदमा लिखता है। हालांकि उसमें जिस तारीख को बाइक चोरी गई उसी का जिक्र दर्ज किया जाता है। इससे साफ सबूत बन जाता है कि समय पर मुकदमा लिखने में कोताही की गई। इतने स्पष्ट परिस्थतिजन्य साक्ष्य के बावजूद इन मामलों को लेकर क्या उच्च न्यायालय ने डीजीपी के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई शुरू करने की जरूरत समझी है। खनन पर न्यायपालिका की रोक का भी कैसा हश्र हो रहा है यह सर्वविदित है। साफ है कि न्यायपालिका का हस्तक्षेप सजावटी है अगर कार्यपालिका तत्पर नही है।
देश लोकतंत्र और व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए सामाजिक सुधारों का मुंह जोह रहा है। उसमें विशिष्ट जनादेश के आधार पर बागडोर संभालने वाली सत्ता अगर अपने मुताबिक काम करने के लिए न्यायपालिका से सहयोग चाहती है तो अन्यथा क्या है। प्रतिबद्ध न्यायपालिका का तकाजा इंदिरा गांधी को भी था। क्योंकि उन्होनें बदलाव के लिए कई क्रांतिकारी फैसले किये थे। तकनीकी नुक्तों को महत्व देने के कारण उनके समय भी कार्यपालिका और न्यायपालिका से टकराव की स्थितियां बनी लेकिन अतंतोगत्वा न्यायपालिका को स्वीकार करना पड़ा था कि संसद सर्वोच्च है। मौलिक अधिकारों का प्रावधान अगर शोषक वर्ग का उपकरण बन कर रह जाता है तो वंचितों को अधिकार दिलाने के नाम पर सत्ता में पहुंचने पर साम्यवादी दल को मौलिक अधिकार की परिभाषा बदलनी ही पड़ेगी। यही बात एक दक्षिणपंथी सरकार पर भी लागू होती है और तब जबकि दक्षिणपंथी सरकार की प्रतिबद्धता में एक धार्मिक एजेंडा भी शामिल हो स्थिति और पेंचीदा बन जाती है। ऐसी राजनीतिक शक्तियों को राजनैतिक तौर-तरीकों से ही समझदार जनादेश का माहौल बनाकर परास्त किया जा सकता है लेकिन संविधान की सीमा में अपने मुताबिक काम करने से उसे रोकना न तो न्यायपालिका के लिए नैतिक रूप से उचित है और न ही वैधानिक रूप से।
प्रतिबद्ध न्यायपालिका की जरूरत ऐसी सरकार को जरूर ही होगी इसीलिए मोदी सरकार राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का प्रस्ताव न्यायधीशों की नियुक्ति के लिए लेकर आई थी। न्यायपालिका ने उसमें अड़ंगा लगा दिया जिससे सरकार के इरादों में ब्रेक तो लग गया है लेकिन उसने रोलबैक नही किया है। उच्चतम् न्यायालय के काॅलेजियम ने एक हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश पद के लिए जो नाम भेजा था उसे मंजूर न करके सरकार ने अपनी मंशा को जाहिर कर दिया है। न्यायपालिका खुद भी विवादों से बहुत मुक्त नही है। अमर सिंह टेलीफोन टेप कांड, नीरा राडिया मामला और न्यायपालिका परिवार के ही मार्कंडेय काटजू के न्यायाधीशों की नियुक्ति में सुप्रीमकोर्ट द्वारा भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन का आरोप लगाने से यह साबित है कि कोई संस्था दैवीय पवित्रता की अधिकारी नही है। जैसा समाज होगा उसकी सभी संस्थायें कमोवेश वैसी ही बनेगीं। न्यायपालिका अगर स्वायत्ता के बहाने अपनी सम्प्रभु स्वतंत्र सत्ता का आभास दिलाना चाह रही है तो कहा जायेगा कि उसके आग्रह सैद्धांतिक तकाजे पर आधारित नही हैं। न्यायपालिका अपने ईगो के लिए लड़ाई लड़ रही है जो एक गरिमापूर्ण संस्था के बड़प्पन के अनुरूप नही कहा जा सकता।

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