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क्या आपने सोचा है कि अपने ही लोगों से धर्म को बचाने के लिए क्यों अवतार लेना पड़ता है ऊपर वाले को

मुक्त विचार
मुक्त विचार
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सत्ता की प्रतिस्पद्र्धा में शामिल होने की प्रेरणा के पीछे दो कारकों का योगदान होता है। एक तो है समाज को सुुव्यवस्थित करने की भावना और दूसरी अपना वर्चस्व स्थापित करने की। इन कारकों का गुणात्मक प्रभाव, जाहिर है कि अलग-अलग है। भारतीय लोकतंत्र इन दो तरह की शक्तियों की द्वंद्वात्मकता के तहत अग्रसर हो रहा है।
बोफोर्स कांड के कारण वीपी सिंह के अभियान को जबरदस्त सहानुभूति और समर्थन मिला। यह बहस का विषय हो सकता है कि वे जनआकांक्षा के साथ क्यों न्याय नहीं कर पाए। दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो कि प्रत्यक्ष रूप से विकास और सुशासन के लिए प्रतिबद्धता दिखा रहे हैं उनको केेंद्र की सत्ता में पहुंचाने वाले वर्ग का मिशन किसी तरह की सुव्यवस्था करना उतना नहीं था। उस वर्ग ने मोदी पर जिन लक्ष्यों के तहत दांव लगाया वे एक-दूसरे के पूरक हैं। इनमें से एक है मुसलमानों से इतिहास का बदला लेना और दूसरा वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत अपनी प्रभुता की बहाली। हिंदू राष्ट्र की कल्पना में दोनों ही लक्ष्यों की पूर्ति निहित है लेकिन वे इतिहास के प्रगतिशील चरित्र से अनभिज्ञ हैं जबकि मोदी को कुर्सी मिलने के बाद इतिहास की इस तासीर का भलीभांति इलहम हो चुका है इसलिए वह संतुलन बनाते हुए नए राजनीतिक एजेंडे का तानाबाना बुनने में लगे हैं जिसमें अयोध्या में विवादित स्थल पर जबरन राम मंदिर बनाने के मामले में वे अपना दामन बचाते दिख रहे हैं लेकिन समान नागरिक संहिता के लिए रास्ट्रीय बहस कराने की भूमिका बहुत ही सुनियोजित ढंग से रच रहे हैं। अंततोगत्वा यह पैंतरा सेक्युलर जमात को धर्म संकट में ढकेलने का काम भी कर सकता है।
भ्रष्टाचार और काले धन पर लगाम लगाने की दिशा में मोदी सरकार में ठोस कदम आगे बढ़ाने का दम भले ही भरा जाए लेकिन इसके बावजूद हर क्षेत्र में कर बढ़ाने की मजबूरी यह जताती है कि दाल में कुछ न कुछ काला जरूर है वरना कई हजार करोड़ के भ्रष्टाचार की रोक के दावे के बाद तो हाल-फिलहाल सरकारी खजाना इतना लबालब हो जाना चाहिए था कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में सस्ते क्रूड आयल की उपलब्धता के बाद डीजल पेट्रोल की कीमतें बुलंद रखने का कोई औचित्य ही नहीं बचता था। दूसरे आम लोगों के मौलिक अधिकारों का दमन करने वाले भ्रष्टाचार के स्वरूप से किसी तरह की निजात का अहसास भी किसी को नहीं हो पा रहा है। किसान आज भी बिना घूस दिए बैंकों से अपना क्रेडिट कार्ड नहीं बनवा पा रहे। सरकार ईमानदार है तो केेंद्रीय विभागों में खुलेआम रिश्वतखोरी का माहौल बदलना चाहिए लेकिन ऐसा तो कहीं नहीं लग रहा। जब एक ईमानदारी कलेक्टर किसी जिले में व्यवस्था को बहुत कुछ पटरी पर ला देता है तो सरकार के लिए अच्छे दिन का एहसास कराने के लिए दो साल बहुत हैं। केेंद्र सरकार से जुड़े विभागों में भी जायज काम होने के बावजूद लोगों को पैसा देना पड़ रहा है जिससे उनका स्वाभिमान आहत होता है। क्या इस पीड़ा के रहते हुए वे अच्छे दिन का अहसास कर सकते हैं।
लेकिन इसके बावजूद अगर मोदी सरकार से संतुष्ट होने का दिखावा करना लोगों की मजबूरी बना हुआ है तो इसके पीछे सिर्फ यह भावना है कि कम से कम मुसलमानों को तो इस सरकार ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कार्रवाइयों के जरिए सीधा रहने को बाध्य कर ही दिया है। मुसलमानों को लेकर ऐसे लोगों के विचारों के दो पहलू हैं। एक तो यह है कि पिछली सरकारों ने मुस्लिम परस्ती के नाम पर अलगाववाद आतंकवाद और अपराध को पनपने से रोकने में दृढ़ता नहीं दिखाई जिससे देश और व्यवस्था के लिए खतरा पैदा हो गया। यह सिर्फ मुस्लिम तुुष्टिकरण के तहत नहीं हुआ बल्कि जातिगत तुष्टीकरण ने भी इन खामियों को बढ़ावा दिया है। सार्वभौम न्याय के लिए किसी की भी अंधपरस्ती से बचा जाना चाहिए लेकिन जो लोग मानवीय प्रवृत्तियों में आस्था रखते हैं उनका यकीन है कि न्याय के उद्देश्य से कठोर व्यवस्था को समर्थन देना हर कहीं सामूहिक चेतना में निहित है जिसमें धर्म या जाति की वजह से कोई फर्क नहीं पड़ता। लोग बहकते तब हैं जब अपने स्वार्थ के लिए व्यवस्था को विघ्नसंतोषी तत्वों के अनुचित लाभ के लिए मोड़ दिया जाता है।
मुसलमानों को लेकर दूसरा दृष्टिकोण खतरनाक है। यह दृष्टिकोण मुसलमानों में धर्म विरोधी चेहरा देखने की भावना से प्रेरित है। धर्म और संस्कृति क्या है इस पर देश में लोगों की समझदारी साफ नहीं है। हिंदू शास्त्रों में उल्लेख है कि जब-जब धर्म की हानि हुई और पाप बढ़े तब-तब भगवान ने दुस्टों के संहार के लिए अवतार लिया है लेकिन सवाल यह है कि भगवान परशुराम ने धर्म को बचाने के लिए इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार किया लेकिन क्षत्रिय तो गैर हिंदू नहीं थे फिर उनके कारण धर्म की हानि कैसे हो रही थी। रावण के लिए राम ने अवतार लिया लेकिन रावण भी कोई गैर धर्म नहीं अपनाए था वरना उसके आराध्य महादेव क्यों होते। भगवान कृस्ण ने धर्म का साथ देने के लिए पांडवों के साथ महाभारत के युद्ध में भाग लिया लेकिन कौरवों ने कौन सा दूसरा धर्म अपना लिया था। वे भी उसी धर्म को मानते रहे थे जिसमें पांडवों का विश्वास था। इस बात पर हैरत हो सकती है कि हिंदू धर्म में एक भी अवतार किसी गैर हिंदू कौम के कारण धर्म के क्षय होने के खतरे की वजह से होने का उल्लेख नहीं है।
इसका अर्थ यह है कि धर्म पूजा पद्धति और ईश्वर के किसी विशेष नाम से अलग चीज है। रमजान के महीने में भी बेकसूरों की मारकाट से बाज न आने वाले कतई मुसलमान नहीं हो सकते भले ही वे नमाज पढ़ते हों और हज करते हों। फिल्म अभिनेता इमरान ने बहुत मार्के की बात कही है कि कुर्बानी का मतलब है अपनी सबसे प्यारी चीज को अल्लाह पर न्यौछावर करना। खरीदे हुए बकरे की बलि देना कुर्बानी नहीं कहा जा सकता। इसी तरह घंटी बजाकर और माला फेरकर कोई हिंदू धार्मिक होने का अधिकारी नहीं बन जाताा। प्राकृतिक न्याय हर धर्म की बुनियादी है। जब कोई इसकी बंदिशों का उल्लंघन करता है तो कितना भी कर्मकांड करे वह धर्म का क्षरण करने वाला खलनायक ही होगा। उससे धर्म को होने वाली हानि को बचाने के लिए कोई अवतार किसी फरिश्ते या किसी पैगंबर को जमीन पर उतरना पड़ेगा।
राज्य व्यवस्था का भी अवलंब प्राकृतिक नैतिकता है। भाषा जाति क्षेत्र नस्ल किसी आधार पर किसी को हेय साबित करना यह भी प्राकृतिक नैतिकता के विरुद्ध है। चूंकि हिंदू राष्ट्र के साथ यह मसला जुड़ा है जिसमें किसे मंदिर में पूजा करने दी जाए और किसे पूजा न करने दी जाए इस जबरदस्ती को कोई धर्म का नाम दे तो यह स्वीकार नहीं हो सकता। यह पाप है इसलिए इसे मिटाने को भी अवतार को आना पड़ेगा।
हमारे संविधान में विशेष अवसर का सिद्धांत अवतारवाद की ही लाक्षणिक अभिव्यक्ति है लेकिन भाजपा ने सोशल मीडिया के जो सैनिक तैयार किए हैं वे आरक्षण के बहाने दलितों के खिलाफ भी उतने ही मुखर हैं जितने मुसलमानों के। दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को अपने मंत्रिमंडल के विस्तार के माध्यम से सरकार में दलित प्रतिनिधित्व बढ़ा दिया है। उनका यह कदम ठीक ही कहा जाएगा पर जो लोग विशेषाधिकार के लिए लड़ रहे हैं वे राष्ट्रवादी होने का मुखौटा भले ही लगाए हों लेकिन असली तौर पर उनके कार्य राष्ट्रद्रोह का प्रतिफलन करते हैं। बाबा साहब अंबेडकर के कुछ विचारों को लेकर किसी का मत उनसे अलग हो सकता है। यह मतभेद तो गांधी नेहरू लोहिया आदि के विचारों को लेकर भी हैं क्योंकि कोई मनुष्य महापुरुष होकर भी पूर्ण नहीं हो सकता लेकिन बाबा साहब के प्रति उनके उद्गार फेसबुक और व्हाट्सअप पर इतने घृणापूर्ण होते हैं कि उनसे राष्ट्रीय एकता की जड़ों में मट्ठा पड़े बिना नहीं रह सकता। इस तरह की विभेदकारी हरकतों की वजह से ही देश एक हजार साल तक गुलाम रहने को मजबूर हुआ। स्वयंभू सूरमाओं को हर विदेशी आक्रमणकारी के सामने घुटने टेकने पड़े अगर देश के हर निवासी में बेहतर लड़ाके बिना जातिगत पूर्वाग्रह के चुने जाने का माहौल होता तो इस देश का इतिहास दूसरा ही होता। फिर भी अपने देश के लोगों पर सर्वोच्चता साबित करने के दुराग्रह पर बल की कोशिशें की जा रही हैं यह कारगुजारी अक्षम्य है।
मोदी को समझना चाहिए कि अगर सोशल मीडिया की अपनी सेना जो वायरस का रूप ले चुकी है उसकी मानसिकता को उन्होंने सही दिशा में नहीं ढाला तो परिणाम उनके और भाजपा के लिए अनर्थकारी होंगे। कुछ सप्ताह पहले भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने सोशल मीडिया से जुड़े पार्टी कार्यकर्ताओं का सम्मेलन बुलाया था लेकिन चूंकि भाजपा को अफवाहों की चक्की का आटा खाने की आदत है इसलिए उन्होंने इनका सही दिशा में ब्रेनवाश करने की कोई चेस्टा नहीं की। हालत यह है कि मोदी सर्वसमावेशी व्यवस्था के लिए कार्य करेंगे और उनके सोशल मीडिया सैनिक इस मुगालते में रहेंगे कि एक दिन वे आरक्षण आदि खत्म करके सेवकों को सेवकाई में ही संतुष्ट रहने का कर्तव्यबोध करा देंगे। इस द्वंद्व के बीच जब उन्हें अपनी मंशा पूरी न हो पाने का एहसास होगा तो मोदी से उनका मोहभंग हो जाएगा जो खतरनाक उन्माद का रूप ले सकता है इसलिए सुशासन की आकांक्षा के बिंदु पर जनमत को केेंद्रित करना मोदी को चुनौती के रूप में लेना चाहिए। सकारात्मक बदलावों के लिए यह जरूरी है तभी इतिहास में उज्ज्वल जगह बनाने की अपनी महत्वाकांक्षा मोदी पूरी कर सकते हैं।

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