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जानिये भाजपा की सोशल मीडिया सेना कैसे पहुंचा रही है सामाजिक सदभाव को खतरा

मुक्त विचार
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बसपा सुप्रीमों मायावती के राजनैतिक तौर तरीकों की आलोचना सभी क्षेत्रों में हो रही थी। पूरे समय पार्टी के लिए काम करने वाले लोगों की बजाय चुनाव के मौके पर रातों-रात गांठ के पूरे किसी शख्स को उम्मीदवार के रूप में पार्टी को थोप देने से कार्यकर्ता लंबे समय से खिन्न थे लेकिन इस बार असंतोष विद्रोह के रूप में फूटने लगा था। स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चैधरी का पार्टी से बाहर आकर हमला बोलने लगना पहले की तरह मायावती की सेहत पर कोई फर्क नही पड़ता जैसा मामला नही रह गया था। मायावती की हड़बड़ी और डैमेज कंट्रोल के लिए ताबड़तोड़ पार्टी में की गई बैठकों से पता चल रहा था कि नये घटना क्रम में बसपा में किस कदर भूचाल ला दिया है। लेकिन राजनीति में अचानक एक मुददा रातोंरात पूरी तस्वीर बदल देता है यह बात भाजपा की उत्तर प्रदेश इकाई के बर्खास्तशुदा अध्यक्ष दयाशंकर सिंह के मायावती को लेकर दिये गये बेहद अशोभनीय और आपत्तिजनक बयान के बाद बनी स्थितियों से जाहिर हो रहा है। इस मुददे ने एक बार फिर मायावती को इतनी ताकत दे दी है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बारे में हाल तक किये जा रहे आंकलन के पूरी तरह बदल जाने के आसार पैदा हो गये हैं।
दलित राजनीति में मायावती का योगदान और उनकी सीमाएं विषय पर एक पूरी किताब लिखी जा सकती है। उत्तर प्रदेश में उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद से दलितों के साथ सम्मानजनक ढंग से पेश आना समाज के सफेदपोशों की मजबूरी बन गया है। यह उपलब्धि किसी क्रांति से कम नही है। लेकिन दलित राजनीति के सरोकारों को सिर्फ इतने पर समेट कर नही रखा जा सकता। मायावती ने इसके बाद जो रंग-ढंग अपनाये वे उनके उक्त गुरुतर योगदान से वंचितों में उनके प्रति उपजी आस्था का दुरुपयोग है। इससे मोहभंग की स्थिति पैदा होना पहले से ही लाजिमी था और इस बार विस्फोटक ढंग से इसका प्रकटन सामने आया। बसपा के टिकिट पर 1989 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में पहली बार चुने गये 13 विधायक कमोवेश एकदम साधनहीन थे। उम्मीदवार के लिए बसपा के कार्यकर्ताओं द्वारा भूखे रहकर टूटीफूटी जीप खरीदने के पैसे का इंतजाम किया गया। दूसरी ओर बसपा के प्रतिद्वंदी उम्मीदवार उस समय के मुताबिक सारे कार्यकर्ताओं के लिए वाहन की व्यवस्था कर देते थे। प्रचार में होने वाली अपने कार्यकर्ताओं की थकान मिटाने के लिए वे भोजन के साथ-साथ अन्य लजीज व्यवस्थायें करने में वे पीछे नही थे। जहां तक मनोवैज्ञानिक स्थिति का सवाल है प्रतिद्वंदी उम्मीदवारों के सामने बसपा उम्मीदवार अपनी उपस्थिति तक दर्ज कराते नजर नही आ रहे थे। जिससे फ्लोटिंग वोटर जिनका अनुपात 10-15 प्रतिशत तक होता है बसपा उम्मीदवार को वोट देना फजूल मान रहे थे। फिर भी बसपा के 13 उम्मीदवार जीते तो यह स्थापित हुआ कि बुर्जुआ लोकतंत्र में गरीब उम्मीदवार भी लोगों को लामबंद कर सकते हैं और उनके समर्थन को चुनावी जीत में तब्दील कर सकते हैं। तथ्य यह भी है कि अगर कोई अपने को प्रूव करने लग जाये तो साधन उसके पास खुद चलकर आना शुरू हो जाते हैं। इसी तर्ज पर आरम्भिक सफलता के बाद ही यथा स्थिति के खिलाफ भीषण जौहर दिखा रहे कांशीराम के चुनाव प्रचार के लिए जयंत मलहोत्रा हैलीकाॅप्टर की व्यवस्था करने की पेशकश लेकर आ गये। कांशीराम ने उनकी सेवा स्वीकार की लेकिन अपनी शर्तों पर। उन्होेंने जयंत मलहोत्रा का हैलीकाॅप्टर लेकर भी उन्हें औकात पर रखा। यह एहसास कराया कि मुझे हैलीकाॅप्टर देकर तुम धन्य हुए हो मैं नहीं। जाहिर है कि कांशीराम मुलायम सिंह नही थे जिनकी पार्टी में फंड मैनेजरी करके अमर सिंह सारे नेताओं से ऊपर होकर पार्टी का एजेंडा तय करने की हैसियत में पहुंच गये। जयंत मलहोत्रा का ऐसा कोई हस्तक्षेप कांशीराम ने बसपा में नही होने दिया।
उनकी उत्तराधिकारी होने के नाते मायावती से भी ऐसे ही तेवरों की उम्मीद थी लेकिन मायावती ने तो चुनावी फंड की व्यवस्था करने के नाम पर पार्टी की दशा ही बदल दी। उन्होंने भरपूर बोली लगाने वाले को ही टिकिट देने की नीति बनाकर गरीब कार्यकर्ताओं के लिए चुनाव लड़ने की तमन्ना को असंभव सपना बना दिया। उन्होंने पार्टी के वैचारिक लक्ष्य मे भी इतना बदलाव कर दिया कि उसके मूल स्वरूप को ढूढ़ना आज मुश्किल है। उनकी समर्पणकारी नीति तभी उजागर हो गई थी जब उन्होंने पेरियार रामास्वामी नायकर की भारी खर्च से बनी मूर्ति कूड़ेदान में फेंक दी। सीलिंग के मुददे पर भी उन्होंने भगोड़ा रुख अपनाया। वर्ण व्यवस्था से लड़ाई का सबसे प्रखर और पैना औजार था बहुजन समीकरण जिसे पिछड़ों की उपेक्षा करके भौथरा बनाकर उन्होंने किसे खुश करने की कोशिश की यह कहने की जरूरत नही है।
मायावती के प्रतिवाद की यह वजहें बेहद जायज है लेकिन दयाशंकर सिंह के मन के मलाल के पीछे ऐसा कोई कारण नही था। दयाशंकर सिंह समाज के उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सदियों से जनेऊ छिन जाने की आशंका से डरा रहने के कारण वर्ण व्यवस्था के प्रति अपनी वफादारी जताने के लिए कमजोरों के खिलाफ किसी भी सीमा तक जाने को तैयार रहा है। भारतीय जनता पार्टी का अस्तित्व ऐसी ही वर्ग शक्तियां द्वारा निर्मित है। इसलिए दलितों के मामले में उसका व्यवहार पाखंडपन की इंतहा को जाहिर करता है। एक ओर भाजपा और संघ परिवार औपचारिक रूप से बाबा साहब अंबेडकर की जयंती के आयोजनों से उनके प्रति श्रद्धा जताने का नाटक करता है दूसरी ओर अंबेडकर की निंदा के लिए किताब लिखने वाले अरुण शौरी को सिर पर बैठाने में इनके लोगों को हिचक नही होती। आज भी यह सिलसिला चल रहा है। एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सभाओं में कहते हैं कि उन जैसे नाचीज का प्रधानमंत्री बनना बाबा साहब के सामाजिक परिवर्तन के बीजारोपण का परिणाम है। दूसरी ओर उनकी सोशल मीडिया सेना फेसबुक और व्हाटसएप पर डाॅ. अंबेडकर की डिग्रियों को फर्जी बताने उनकी योग्यता को संदिग्ध साबित करने और उन्हें अंग्रेज भक्त ठहराने का अभियान चलाती रहती है। भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह जब अपने सोशल मीडिया सैनिकों का सम्मेलन करते हैं तो उसमें उन्हें इस तरह की हरकतों से बाज आने की कोई चेतावनी नही दी जाती। बल्कि इस मुददे पर मौन स्वीकृतम् लक्षणम् की भंगिमा दिखाई जाती है। दोहरेपन की हालत यह है कि भाजपा के जो सोशल मीडिया सैनिक अंबेडकर को आजादी की लड़ाई में भाग न लेने के नाम पर कोसतें हैं उनके लिए उनके कुल के गौरव वे राजेे-महाराजें हैं जो अंग्रेजों की कृपा की वजह से रियासत के हकदार रहे थे और वायसराय की तो बात छोड़े ब्रिटिश प्रशासन के साधारण एजेंट तक के सामने बिछकर राष्ट्रीय स्वाभिमान को लजाते रहे थे। इनमें से किसी राजे-महाराजे ने आजादी की लड़ाई में भागीदारी नही की। उल्टे उन्होंने सत्याग्रहियों का दमन-उत्पीड़न किया। 15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ तो शायद ही किसी राजा ने अपने किले पर तिरंगा फहराया हो। इतना ही नही आजादी के सूर्य की पहली किरण फूटने का जश्न मनाने के लिए इनकी रियासत में जो देश भक्त उस दिन खुद तिरंगा बनाकर लहराने निकले उन्हें रोकने तक की कोशिश इन लोगों ने की। हालांकि इनमें से बहुत सारे लोग नादान हैं जो संदर्भ से काटकर बाबा साहब के फैसलों को देखते हैं। अगर इन्हें सही जानकारियां दी जायें और विश्लेषण के सही एगिंल बताये जायें तो यह इनकी समझ में आ जायेगा कि डाॅ अंबेडकर भी ब्रिटिश शासन को हटाने के लिए उतने ही कटिबद्ध थे जितनी कांग्रेस और अन्य देश भक्त तंजीमें। लेकिन अपने कार्यकर्ताओं को यह जानकारी देना तो भाजपा का काम है जो अंबेडकर भक्ति का दिखावा करने में आज सबसे आगे जा रही है। लेकिन उसकी नीयत में खोट है तभी तो वह यह काम नही कर रही और न ही बाबा साहब और दलितों के प्रति नफरत फैलाने से अपने कार्यकर्ताओं को रोक रही है।
दलित अपने अधिकारों की मांग की वजह से इन तत्वों के गुस्से के निशाने पर हैं। दयाशंकर सिंह के मुंह से मायावती के लिए जो असभ्यतापूर्ण शब्द निकले वे अचानक नही हैं यह भाजपा में व्याप्त परिवेश का तार्किक परिणाम है। फेसबुक और व्हाटसएप पोस्ट पर आरक्षण विरोध के नाम पर दलितों को गधा लिखा जाना क्या पार्टी के शीर्ष नेतृत्व द्वारा पढ़ा नही जाता जबकि सच्चाई यह है कि फेसबुक और व्हाटसएप की माॅनीटरिंग सबसे ज्यादा कहीं होती है तो भाजपा में। इन लोगों के देश भक्ति को लेकर भी बड़े-बड़े दावे हैं लेकिन इतिहास कुछ और ही कहता है। दयाशंकर सिंह जिस माहौल में पले-बड़े हुए होंगे उसमें उन्होंने अपने लोगों की शूरवीरता और बलिदान के बड़े-बड़े किस्से सुने होगें। लेकिन उन शूरवीरों का यह हाल रहा कि उनकी हजारों की संख्या पर चंद सैकड़ा विदेशी आक्रमणकारी सदा भारी पड़ते रहे। शौर्य और पराक्रम को आनुवाशिंकता से जोड़े रखने के लिए इन्होंने अपने ही देश के दूसरे वर्गों में बेहतर लड़ाकों की तलाश नही होने दी वरना देश को एक हजार साल की गुलामी न झेलनी पड़ती। आज भी देश भक्ति का इनका स्पेशल माॅडल जारी है जिसमें भले ही वे दुनियां के सामने दूसरे किसी देश का गुलाम कहलायें लेकिन उन्हें शर्म नही लगेगी पर जिन्हें गुलाम बनाये रखने की साधना में उन्होंने राष्ट्र की स्वतंत्रता से हमेशा खिलवाड़ होने दिया उन्हें आज भी सिर उठाकर जीने देने की समझदारी दिखाना उनकों गंवारा नही है।

मायावती के प्रति कहे गये अशोभनीय शब्दों के मुददे को हल्का करने के लिए वे दूसरे नेताओं द्वारा अन्य महिलाओं के प्रति की गई अनर्गल टिप्पणियों के उद्वरण ढूढ़-ढूढ़कर इस समय ला रहे हैं अगर उन्हें उन नेताओं की टिप्पणियां बर्दास्त नही थी तो किसने उनकों रोका था सड़कों पर आने के लिए। लेकिन मायावती पर हुई टिप्पणी के बाद में जिस तरह से समाज के एक बड़े हिस्से ने उग्र प्रतिक्रिया दर्शाई है उससे जिम्मेदार लोगों को यह सोचना पड़ गया है कि अगर इस मामले में दलितों के जख्मों पर मरहम न लगाया गया तो सामाजिक सदभाव की गंभीर क्षति हो सकती है जो किसी देश के सबसे बड़े नुकसान का कारण बन सकता है। क्या देश भक्ति की दुहाई देने वाली मोदी सरकार इस बात को समझते हुए अपने समर्थक वर्ग के उस माइंडसैट को बदलने का कोई जागरूकता अभियान चलायेगी जिसके लिए दलितों पर अपनी प्रभुता की रक्षा करना सर्वोपरि है।
अब आखिर में दयाशंकर सिंह प्रकरण के बाद बसपा के उन हावभावों की जिससे वह खुद भी अपने को कटघरे में खड़ा कर चुकी है। राज्य सभा में इस मुददे को उठाते हुए मायावती ने दयाशंकर सिंह की जो मां-बहन की उसे भी जायज नही ठहराया जा सकता और न ही लखनऊ में जमा बसपा के कार्यकर्ताओं के अपशब्दों को सही कहा जा सकता है। इंसाफ और हक की लड़ाई लड़ने वालों का किरदार आततायियों से ऊंचा होना चाहिए। लेकिन मायावती का रवैया बाबा साहब अंबेडकर की तो छोड़िये बाबू जगजीवन राम तक के स्तर का नही हैं। बाबू जगजीवन राम ने बनारस में जिस प्रतिमा का अनावरण किया था उसे पवित्र करने के नाम गंगा जल से धोने वाले कटटरपंथियों ने उनको अपमानित करने की पराकाष्ठा पार कर दी थी लेकिन बाबूजी ने इसके बावजूद संयम का दामन नही छोड़ा। मायावती में वैसा शील और बड़प्पन नही है। इसीलिए वे अपने लक्ष्य के लिए टिकी नही रह पातीं। परिवर्तन की राजनीति के वर्ग शत्रु जानते हैं कि मायावती को क्रांतिकारी धारा प्रतिक्रांति की कर्मनाशा में गर्क करने का मोहरा आसानी से बनाया जा सकता है। इसीलिए वे मायावती को समर्थन भी समय-समय पर देते रहे हैं।

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