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कश्मीर को हथियाने के मंसूबे मेन क्यों कामयाब नहीं हो सकता पाकिस्तान ,जानिए

मुक्त विचार
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केरल के कोझीकोड में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्य समिति की बैठक चल रही है। बैठक में भाग लेने पहुॅंचे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर उड़ी में सैनिक शिविर पर पाक पोषित आतंकवादियों के हमले का निर्णायक जवाब देने का दवाब था। लेकिन उन्होंने जो भाषण दिया, उससे यह स्पष्ट हो गया है कि पाकिस्तान पर जवाबी हमला बोलने जैसी अपेक्षा को वे टालना चाहते हैं। मोदी में भाषण को ओजपूर्ण बनाने की ऐसी क्षमता है कि उनकी हुंकार लोगों का दिमाग डायवर्ट करने में सफल रहती है। इसलिए भाजपा के अति उत्साही समर्थक भी उनके भाषण से संतुष्ट हैं और अठारह हमारे जवानों के बदले पाकिस्तान के अठारह सौ सैनिकों का सिर काट लेने जैसी मोदी से लगाए बड़बोली उम्मीद का ख्याल उनके दिमाग से हट चुका है। मोदी के भाषण का सार देखें तो वह पूर्व की सरकारों के कश्मीर के सन्दर्भ में पाकिस्तान को जवाब देने के लिए अमल में लाए जा रहे रोड मैप से अलग नहीं है। पूर्व की सरकारें भी विश्व बिरादरी में आतंकवाद के जरिए कश्मीर को हथियाने के मंसूबेे पर चोट कर उसे छकाने में लगी थी। मोदी ने भी युद्ध जैसी किसी निर्णायक कार्यवाही के वजाय इसी रास्ते को चुना है। सिंधु नदी जल समझौता तोड़ने, पाकिस्तान को व्यापार में दिए गए वरीयता वाले देश का दर्जा खत्म करने और सांस्कृतिक खेल आदि क्षेत्रों में नागरिक स्तर पर मेल मिलाप बढ़ाने की नीति से हाथ खीचने जैसे कुछ कड़े विकल्पों पर मोदी सरकार इसके अलावा विचार कर रही है, लेकिन पाकिस्तान अधिकृत क्षेत्र में चल रहे आतंकवादी शिविरों पर हमला बोलने तक के विकल्प को लेकर वह ऊहापोह मंे है।
कश्मीर और दूसरे संवेदन मामलों में भाजपा ने अभी तक जो परिवेश गढा़ है, उसमें खोखली भावनात्मकता है जिसका व्यवहारिक यथार्थ से कोई वास्ता नहीं हैं और अब जब मोदी के हाथ में देश की हुकूमत की वागडोर है तो उन्हें अपनी ही पार्टी के चश्मे से चीजों को देखने में असहज होना पड़ रहा है। इसी कारण गोरक्षा जैसे मुद्दे पर उनकी तल्खी अपने ही लोगों के प्रति उबल पड़ी। ऊना में संस्कृति के ठेकेदारों ने जो विकृत हरकत की उसे लेकर मोदी और संघ को ऐसे लोगों को आगाह करना पड़ गया। दलितों को अपना जरखरीद गुलाम समझकर उनसे अमानुषिक व्यवहार करने वालों से कठोरता से पेश आने की जरूरत मोदी को महसूस होने लगी है। कश्मीर के मामले में भी भाजपा का जो परम्परागत फार्मूला रहा है, मोदी को उसे ठण्डे बस्ते में डालकर रखना पड़ रहा है। जबकि उनके अति उत्साही समर्थक यह उम्मीद पाले बैठे थे कि मोदी प्रधानमंत्री पद संभालने के एक-दो माह बाद ही अनुच्छेद-370 को खत्म कर घाटी में गैर मुस्लिम आबादी बसाने का रास्ता खोल देंगे। जिससे घाटी का सांप्रदायिक संतुलन ठीक कर पाकिस्तान को पैठ जमाने का मौका खत्म करने में कामयाबी हासिल की जा सकेगी। लेकिन कश्मीर का मामला अन्तर्राष्ट्रीय जगत में जिस तरह तूल लिए हुए है उसके मद्देनजर भारत के सामने ऐसा करने पर कितनी समस्याएं आ सकती हैं, किनारे पर बैठे लोगों को इसका अन्दाजा नहीं हो सकता। मोदी जब सत्ता की वैतरणी में विचरण करने पहुॅंचे तब उन्हें जटिलताओें का आभास हुआ।
कश्मीर के मामले में भारत की अघोषित नीति यह रही है कि इस संवेदनशील मोर्चे पर वक्त गुजारने की रणनीति अपनाकर पाकिस्तान को छकाया जाए। पहले पाकिस्तान अलकायदा और अन्य बाहरी आतंकी संगठनों को कश्मीर में झोंक रहा था। लेकिन बाद में जब अफगानिस्तान की स्थितियाॅं बदलीं तो भारत को राहत मिलनी शुरू हो गई और पाकिस्तान अपने बुने जाल में फंसता नजर आने लगा। इस बीच अमेरिका के आॅपरेशन लादेन की चपेट में भी पाकिस्तान आ गया, जिससे उसे कश्मीर को भूलकर कुछ दिनों अपनी चिन्ता करनी पड़ गई। मामले को टालकर उसकी गर्मी निकालने और फिर ठण्डा करके खाने की यह रणनीति मोदी के सत्ता में आने तक विस्तारित बनी रही है। मोदी काल में यह एक बहुत अच्छा अवसर आया जब अलगाववादियों की समर्थक मानी जाने वाली पी0डी0एफ0 और भारतीय जनता पार्टी को मिलकर सरकार बनाने के लिए जम्मू कश्मीर के मतदाताओं ने वाध्य किया। मेहबूबा मुफ्ती के वालिद मुफ्ती मोहम्मद सईद जब तक मुख्यमंत्री थे, चीजें सही ट्रैक पर चल रही थीं। सईद साहब अनुभवी थे वे अलगाववादियों को संतुष्ट करने वाले कुछ काम कर देते थे, जिससे अलगाववादी सधे रहते थे। भाजपा नेतृत्व भी सूझबूझ के तहत उनके कार्याें में अड़ंगेबाजी से बचता था। भाजपा और पी0डी0एफ0 के इस समायोजन से आतंकवादी कार्यवाहियों के लिए गुंजाइश खत्म होने की उम्मीद बढ़ गई थी, लेकिन सईद साहब के निधन से चीजें बेपटरी हो चली हैं। मेहबूबा पर भाजपा ज्यादा ही हावी हो गई है जिससे अलगाववादियों में उनकी स्वीकार्यता अपने वालिद जैसी नहीं रह गई। बुरहान बानी के एनकाउण्टर में मारे जाने के बाद घाटी में अशान्ति का जो अनन्तकालीन दौर शुरू हुआ है। वह भारतीय पक्ष के लिए बहुत बड़ी चिन्ता का कारण है। इसी कारण कुछ विशेषज्ञों की राय है कि पाकिस्तान के खिलाफ यु़द्ध छेड़ने से भारत का कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा। हमारी सरकार को सबसे पहले घाटी के जनमत को अपने पक्ष में मोड़ने की कामयाब कोशिश करनी होगी। विशेषज्ञों की इस राय पर शायद प्रधानमंत्री मोदी गौर भी कर रहे हैं लेकिन हालात ज्यादा ही बिगड़ चुके हैं जिससे सर्वदलीय प्रतिनिधि मण्डल की श्रीनगर यात्रा भी नाकाम चली गई।
लेकिन, कुछ और परिघटनाओं को भी संज्ञान में लिया जाना चाहिए। एक ओर भारत विश्व बिरादरी में पाकिस्तान को अलग-थलग करने में लगा है दूसरी ओर उसका पुराना भरोसेमंद मित्र रूस इस नाजुक मौके पर भी पाकिस्तान में संयुक्त सैनिक अभ्यास के पूर्व निर्धारित अपने कार्यक्रम से विरत नहीं हुआ। चीन के रुख के बारे में भारतीय मीडिया की सकारात्मक खबरें बहुत गम्भीर नहीं मानी जा सकतीं। अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया की खबरों से चीन के रुख की जो तस्वीर उभरती है उससे यह भ्रम दूर हो जाता है कि चीन की पाकिस्तान के प्रति पक्षधरता में कुछ भी गिरावट आई है। एक परिघटना अलकायदा के बयान की है जिसमें इस आतंकवादी संगठन ने अपने वैचारिक फ्रेमवर्क में रहते हुए भी यह उजागर किया है कि पाकिस्तानी सेना अपनी अय्याशी के खर्चे के लिए कश्मीर मुद्दे का इस्तेमाल कर रही है। लेकिन उसका कश्मीर और इस्लामी निजाम के विस्तार से कोई लेना-देना नहीं है। अलकायदा का यह आरोप सच्चाई के काफी नजदीक है। भारत के खिलाफ हमेशा युद्ध मोड में रहने की वजह से ही पाकिस्तानी सेना अनापशनाप बजट हासिल कर पाती है जिसका कोई आॅडिट नहीं होता। जिस दिन उसके और भारत के बीच अमन चैन का माहौल बन जाएगा, उस दिन से पाकिस्तानी रक्षा बजट सिकुड़ने लगेगा और पाकिस्तानी सैनिक अफसरों की हरामखोरी में इससे कटौती की नौबत आ जाएगी।
पाकिस्तान में राजनीतिक व्यवस्था मजबूत हो यह भारत के हित में भी है। इसीलिए मोदी ने नवाज शरीफ के साथ शुरू में इस कदर याराना बढ़ाया था लेकिन पाकिस्तान में इसका उल्टा असर हुआ। जबकि मोदी को इसका पहले ही अन्दाजा होना चाहिए था। अचानक पाकिस्तान पहुंचकर मोदी ने शरीफ से मुलाकात की, जिससे पाकिस्तानी सेना को अपने देश के उग्रवादी तबके में यह भ्रम पैदा करने का मौका मिल गया कि मोदी की दोस्ती में डूबकर शरीफ पाकिस्तान को भारत का पिट्ठू बनाए दे रहा है। इस इंप्रैशन से शरीफ इसने विचलित हो गए कि उन्होंने अपनी फौज के आगे पूरी तरह सरण्डर कर दिया।
बहरहाल कश्मीर के मामले में पाकिस्तान को आखिर एक दिन पस्त होना ही पड़ेगा, क्योंकि भारत कठिन से कठिन तनाव को ढील देकर उसकी हवा निकालने के कौशल में सिद्धहस्त है। मोदी ने भी इस मंत्र को समझ लिया है और वे इसी पर अमल में लग गए हैं लेकिन उन्हें दो मोर्चाें पर काम करना पड़ रहा है। एक पाकिस्तान के खिलाफ कूटनीतिक पेशबन्दी और दूसरा अपने लोगों में उन्माद की कमजोरी को निकालना। बेहतर बात यह भी है कि उड़ी में भारतीय सैनिकों की हत्या को लेकर पाकिस्तान के खिलाफ गुस्सा जताने के लिए देश का मुस्लिम समुदाय भी सभी जगह बड़ी संख्या में निकलकर सड़कों पर आ रहा है साथ-साथ में पाकिस्तान से निपटने के मामले में सभी राजनीतिक पार्टियां सरकार के साथ एकजुटता दिखा रही हैं।

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