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शहाबुद्दीन की जमानत निरस्ती बिहार सरकार के लिए साबित हो सकती है नया भूचाल

मुक्त विचार
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बाहुबली शहाबुद्दीन की पटना हाईकोर्ट द्वारा दी गई जमानत खारिज करके उच्चतम न्यायालय ने उन्हें कोर्ट के सामने सरैंडर करने का फैसला सुना दिया है। शहाबुद्दीन के जमानत पर बाहर आ जाने से बिहार के मुख्यमंत्री सुशासन बाबू नितीश कुमार चैतरफा आलोचनाओं में घिर गए थे। इसलिए उनकी सरकार भी शहाबुद्दीन की जमानत खारिज कराने के लिए उच्चतम न्यायालय पहुंच गई थी। लेकिन शहाबुद्दीन के खिलाफ हुए फैसले का श्रेय बिहार सरकार को नहीं दिया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने शहाबुद्दीन के मामले में लचर पैरवी के लिए जिस तरह बिहार सरकार की किरकिरी की उससे साख बहाली के लिए नितीश कुमार द्वारा उसकी जमानत खारिज कराने के लिए किया गया प्रयास नाकाम हो गया है। उच्च्तम न्यायालय पर शहाबुद्दीन से पीड़ित हुए परिवारों की गुहार का असर मुख्य रूप से पड़ा, लेकिन इस घटनाक्रम के बाद जदयू और राजद के संबंधों में खींचतान बढ़ना तय है। नए विकल्प की तलाश में इस बीच जदयू और भाजपा ने एक दूसरे के नजदीक आने के इशारे किए हैं। इसलिए बिहार की राजनीति को शहाबुद्दीन की जमानत खारिज होने का घटनाक्रम किस मोड़ पर ले जाता है यह आंकना राजनीतिक क्षेत्र में जिज्ञासा और अटकलबाजी का एक बड़ा मुद्दा बन गया है।

एक ओर लालू यादव के साथ धर्म निरपेक्षता और सामाजिक न्याय के उद्देश्यों के लिए अडिग रुख अपनाने की खूबियां जुड़ी हैं दूसरी ओर सत्ता के लिए हर मूल्य मान्यता को दर किनार कर देने का कलंकित इतिहास भी उनसे जुड़ा है। सच्चे लोकतंत्र के लिए कारगर कोशिश करने वाले राष्ट्रीय महापुरुषों में डाॅ राम मनोहर लोहिया का नाम शीर्ष पंक्ति में लिया जा सकता है। उन्होंने राजनीतिक लोकतंत्र की कामयाबी के लिए पहले सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना की शर्त के बाबा साहब अम्बेडकर के आग्रह को आत्मसात किया था इसलिए उन्होंने जाति पर आधारित भेदभाव के कारण हाशिए पर रहे तबकों को नेतृत्वकारी पंक्ति में पहुंचाने के लिए आन्दोलन और संघर्ष किया। पर उन्हें अंदाजा नहीं होगा कि जिन तबकों ने वर्ण व्यवस्था के फासिस्ट दौर को पीढियों तक झेला वे भुक्तभोगी सत्ता मिलने पर फासीवाद के सबसे बड़े प्रवर्तक के तौर पर काम करेंगे। लोकदल वंशबेल की पार्टियां और नेता उनके मानस पुत्र कहे जा सकते हैं। लेकिन लोकतंत्र को श्मशान घाट पर पहुंचाकर इन्होंने अपने पितृपुरुष का जिस तरह तर्पण किया वह शर्मनाक है।
जनता दल में इसीलिए बिहार को कार्य क्षेत्र बनाए कई दिग्गजों को लालू से किनारा करना पड़ा था। इस उठापटक के बीच भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बनने पर नितीश ने शासन कला का जो निखार दिखाया उससे लोकदल परम्परा में नत्थी कलंक का काफी हद तक प्रक्षालन हो सका था। लेकिन इतिहास ऐसी करवट बैठा कि लालू और नितीश के विपरीत ध्रुव फिर से जुड़ गए। मोहन भागवत ने एक बयान देकर सामाजिक न्याय की प्रक्रिया को अंजाम तक पहुंचने से पहले यू टर्न देने के लिए जो परख की थी, उसमें लालू और नितीश का नया गठबंधन बड़ी रुकावट बना। जिससे उनके और उनके समर्थकों के हौसले पस्त हो गए और देश प्रतिगामी दिशा में जाने से बच गया। इसबीच लालू ने काफी दुर्दिन देख लिए थे। उम्मीद थी कि इससे उन्होंने अपने तौर तरीके बदलने का सबक सीखा होगा। लेकिन इसमें शुबहा पहले ही दिन पैदा हो गया जब नितीश को उन्होंने अपने दोनों नादान बेटों को उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने के लिए मजबूर कर दिया। रही-सही कसर दोनों बेटों के अपने कामकाज को लेकर प्रतिकूूल चर्चाओं में बने रहने से निकल गई।
नितीश फिरभी इस फजीहत को शराबबंदी जैसे फैसलों से बड़ी लाइन खींचकर झेल रहे थे, लेकिन इस बीच एक और पेंच आ गया। पारिवारिक स्वार्थों को उच्च राजनीतिक मूल्यों और व्यापक सार्वजनिक हितोें पर तरजीह देने की बजह से उत्तर प्रदेश की राजनीति के तकाजे के चलते लालू ने नितीश के लिए भस्मासुर का रूप धारण करने का निश्चय कर लिया। शहाबुद्दीन की जमानत पर रिहाई और उसके बाद नितीश को उनकी पार्टी के लोगों द्वारा नीचा दिखाने का अभियान इस मकसद को जाहिर करने लगा। तात्कालिक तौर पर भले ही जदयू और राजद में युद्ध विराम हो गया हो लेकिन नितीश भी समझ रहे थे कि यह केर-बेर का संग हो गया है। भाजपा ने नितीश से रंजिश भूलकर इस मौके को भुनाने की गोटें फिट करना शुरू कर दिया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जन्मशती में आयोजन समिति में शरद यादव और नितीश को जगह देकर उसने इस ओर पींगें बढ़ाईं। हाल में शरद यादव और राजनाथ सिंह का लंच इस सिलसिले को और आगे ले गया। जाहिर है कि शहाबुद्दीन की जमानत रद्द होने की प्रतिक्रिया में लालू अगर नितीश की सरकार के लिए कोई विनाशलीला रचाते हैं तो जदयू ने डैमेज कंट्रोल का एक पुल बना दिया है।
बात चाहे मुलायम सिंह की हो या लालू की जातियों के बीच अपराधियों को मसीहा के तौर पर स्थापित कर अपना वर्चस्व बढ़ाने की नीति उन्होंने हमेशा अपनाई है। अगर लालू यह सोचते हैं कि शहाबुद्दीन की मदद करने से मुस्लिम जनाधार उनके साथ जुड़ेगा तो इसमें मुसलमानों की कोई गलती नहीं हैं। मुलायम सिंह भी उत्तर प्रदेश में राजा भइया और विजय मिश्रा जैसे नवरत्नों को जोड़कर ठाकुर ब्राह्मणों का दिल जीतने के मामले में सुपरहिट फार्मूला फिल्म चला चुके हैं। हालांकि अपराधियों को नेता बनाने से कभी किसी कौम का उत्थान नहीं हुआ और जो लोग ऐसा करते हैं वे किसी का उत्थान करना भी नहीं चाहते। लेकिन ऐसे फार्मूले इसलिए कामयाब होते हैं क्योंकि जब विधि व्यवस्था की मशीनरी पंगु हो तो त्वरित राहत के लिए माफिया लोगों की पसन्द बनना लाजिमी है, जो तुरत-फुरत फैसला करके दिखाते हैं। राजनीति में बाहुबल का प्रभाव निष्पक्ष विधि व्यवस्था से किस तरह मिटाया जा सकता है इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो खुद नितीश हैं।
शुक्रवार को बिहार की राजनीति को प्रभावित करने वाले दो अदालती फैसले सामने आए। एक तो शहाबुद्दीन का उच्चतम न्यायालय से फैसला है ही दूसरा नितीश के शराबबंदी कानून को गैर कानूनी ठहराने वाला पटना उच्च न्यायालय का फैसला भी कम महत्व का नहीं है। कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना की तर्ज पर लालू शहाबुद्दीन मामले की भड़ास शराबबंदी के फैसले को तुगलकी बताकर नितीश को आड़े हाथों लेते हुए निकाल सकते हैं। तब शायद भाजपा का रुख उजागर तौर पर नितीश के प्रति हमदर्र्दी के बतौर सामने आए। बिहार में नए राजनीतिक समीकरण आकार ले रहे हैं। ताजा घटनाएं इसमें बड़े कारक की भूमिका अदा करने वाली है।

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