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सूत और कपास जुटाने के पहले ही ग्वालियर चंबल के कांग्रेसियों में क्यों हो रही है लट्ठमट्ठ

मुक्त विचार
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लोकतंत्र और आधुनिक समाज में विरासत कितनी ही मजबूत क्यों न हो लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। मध्य प्रदेश में कई सर्वेक्षणों से शिवराज सरकार के खिलाफ एंटी एनकंबैंसी फैक्टर के प्रभावी होने का निष्कर्ष सामने आने के बाद कांग्रेसियों की बाजुएं सत्ता पर फिर अधिकार हासिल करने के लिए फड़क रही हैं, लेकिन राज्य और साम्राज्यों की मान्यता 45 वर्ष पहले समाप्त हो जाने के बावजूद ग्वालियर के सिंधिया राजवंश को यह गुमान खत्म नहीं हुआ है कि वे अभी भी महाराज हैं। कांग्रेस में यह आम सहमति बन चुकी है कि 2018 के विधानसभा चुनाव के लिए अध्यक्ष के रूप में कमलनाथ और मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में ज्योतिरादित्य की जुगलजोड़ी को मैदान मारने के लिए उतारा जाएगा। ऐसे में ज्योतिरादित्य पर पार्टी को एकजुट रखने और जमीनी नेताओं व कार्यकर्ताओं को महत्व देने का दायित्व कहीं अधिक है लेकिन उन्होंने पूर्व मंत्री डॉ. गोविंद सिंह जैसे अपनी दम के कद्दावर नेता को न जानने की बात पत्रकारों के सामने कहकर यह जाहिर कर दिया है कि उन्हें विरासत में मिली हैसियत का निर्वाह करने का सलीका नहीं आता। इसके बाद चंबल संभाग में कांग्रेस के अंदर फूट फट पड़ी है जो इस इलाके में पार्टी की बेहतर संभावनाओं की भ्रूण हत्या का भी कारण बन सकती है।
सिंधिया राजवंश प्रथम स्वाधीनता संग्राम के समय रानी लक्ष्मीबाई के खिलाफ अंग्रेजों का साथ देने के कारण इतिहास में कलंकित विरासत ढोने को अभिशप्त है लेकिन यह विचित्रताओं का देश है। एक ओर यहां की भावनात्मक जनता अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले प्रथम स्वाधीनता संग्राम से लेकर अंतिम स्वाधीनता संग्राम तक की हुतात्माओं के लिए अपार श्रद्धा रखती है वहीं दूसरी ओर मध्य भारत जैसे इलाके में उसे उन राजवंशों से गहरा मोह रहा है जिन्होंने स्वाधीनता के युद्ध के साथ विश्वासघात किया था। आजादी के इतने वर्ष बाद भी भावुकता की इस कमजोरी से यह देश उबर नहीं पाया है। जिसकी वजह से आम अवाम तक की दृष्टि अभी तक बंधी हुई बनी है। सिंधिया राजवंश के प्रति उसके कलंकित अतीत के बावजूद मध्य भारत की जनता के असीम लगाव के रूप में इसका उदाहरण सामने आता है। इस लगाव की इंतहा को जानने के लिए 1977 के चुनाव का स्मरण करना होगा जब तत्कालीन मध्य प्रदेश की 40 लोकसभा सीटों में से 39 जगह कांग्रेस को शिकस्त मिली थी, लेकिन उसी साल पहली बार स्वर्गीय माधवराव सिंधिया कांग्रेस समर्थित प्रत्याशी होने के बावजूद जीत गए थे। यह अपवाद इस कारण और ज्यादा कष्टप्रद व विडंबनापूर्ण था कि जिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस के लिए नई पीढ़ी तक में न्योछावर होने का जज्बा उमड़ता हो उनकी आजाद हिंद फौज के तीन सबसे बड़े कमांडरों में से एक कर्नल जेएस ढिल्लन सिंधिया के मुकाबिल थे लेकिन मध्य भारत की जनता पर इमरजेंसी और नसबंदी के गुस्से व नेताजी के प्रति समर्पण पर राजभक्ति भारी पड़ गई थी।
माधवराव सिंधिया बाद में बाकायदा कांग्रेस में शामिल हो गए। 1980 में जिन दिनों भिंड में मेरी पत्रकारिता की शुरुआत हो रही थी मैं देख रहा था कि सिंधिया की शैली की वजह से भिंड जिला किस तरह से कांग्रेस में उनके कारण उपज रहे तीखे द्वंद्व का गवाह बन चुका था। परंपरागत कांग्रेसियों को किनारे करके अनुचरों को उनके स्थान पर कांग्रेस के केंद्र में लाने की स्वर्गीय सिंधिया की कोशिश इस द्वंद्व के मूल में थी। कोढ़ में खाज का काम तब हुआ जब सिंधिया साम्राज्य के सामने पिद्दी न पिद्दी का शोरबा चुरहट जैसी अदनी स्टेट से जुड़े अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए और उन्होंने सिंधिया की फौज के समानांतर अपने उन लोगों को ताकत देना शुरू कर दिया जिनमें जमीनी पकड़ बनाने की क्षमता थी लेकिन कुलीनता की किसी विरासत से उनका परिचय नहीं था।
इंदिरा गांधी राजवंशों का ग्लैमर खत्म करने पर इस कदर आमादा थीं कि संजय गांधी के माधव राव सिंधिया को पार्टी में शामिल करने के कदम को आसानी से स्वीकार करना उन्होंने गवारा नहीं किया था। बाद में सिंधिया की राजीव गांधी के साथ में भी छनने लगी। इसलिए इंदिरा गांधी को पसंद न होते हुए भी ग्वालियर चंबल संभाग में कांग्रेस की राजनीति की चाभी सिंधिया के हाथ में आ गई। सिंधिया और उनके कांग्रेसी तंत्र का रिश्ता पार्टी की मुख्यधारा से कितना बेमेल था इसकी एक झलक उस समय सामने आई जब माधवराव के लिए चुनावी जनसभा को संबोधित करते हुए राजीव गांधी ने मंच से उन्हें माधव कहकर यारी में पुकार डाला जिससे रंगे हुए कांग्रेसियों की आस्था इतनी आहत हुई कि वे राजीव गांधी की हूटिंग पर उतर आए। कांग्रेस में नेहरू-इंदिरा परिवार का दर्जा भगवान से कम नहीं है। उस कांग्रेस में ग्वालियर के नवोदित कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की यह रीति-नीति किसी कुफ्र से कम नहीं मानी जा सकती थी लेकिन राजीव गांधी की शराफत की वजह से यह मामला तूल नहीं पकड़ सका।
इन उदाहरणों से यह जाहिर है कि सिंधिया राजवंश के लोगों के लिए लोकतंत्र की राह कितनी अपरिचित बनी रही है लेकिन जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है लोकतंत्र में पुश्तैनी विरासत बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह जाती अगर उसके आधार पर बढ़त पाने वाले में व्यवस्था के अनुरूप लोकप्रिय शैली बनाने का सलीका न हो। माधवराव सिंधिया के जीवनकाल में ही यह जाहिर हो गया था कि राजभक्ति के उऩके तिलिस्म की जिंदगी कितने कम दिनों की है इसलिए उन्हें लोगों को अपने साथ जोड़े रखने के लिए विरासत से निश्चिंत रहने की बजाय उनके दिल को जीते रखने की मशक्कत करनी होगी। यह तब हुआ था जब एक मामूली बसपा नेता फूलसिंह बर्रैया ने माधवराव को ग्वालियर में ही चुनावी मैदान में जमीन सुंघाने में लगभग सफलता हासिल कर ली थी। अगर प्रशासन और दूसरी प्रभावी संस्थाएं सिंधिया को अनड्यू एडवांटेज न देतीं तो सिंधिया फूलसिंह बर्रैया के मुकाबले चुनाव हार जाते। उन्हें सिर्फ 25 हजार वोटों के अंतर से अपनी कलई न खुलने देने में कामयाबी मिल सकी थी।
सिंधिया राजवंश के कारण इस तरह की समस्या का सामना सिर्फ कांग्रेस को ही नहीं करना पड़ा भाजपा को भी उनके गुरूर के कारण काफी असुविधा का सामना करना पड़ा। माधवराव की बहन यशोधरा राजे शिवराज मंत्रिमंडल की सदस्य हैं। उनके हठ की वजह से सरकारी तौर पर उनके नाम के पहले श्रीमंत लगाने का आदेश सीएम शिवराज को करना पड़ा जिससे उनकी सरकार विवादों के घेरे में आ गई थी। माधवराव सिंधिया की एक और बहन और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के राजसी अहंकार ने प्रधानमंत्री मोदी को भी कम आहत नहीं किया। जिसकी वजह से मोदी को उन्हें पटरी पर लाने के लिए अपना प्रभाव दिखाना पड़ा। अगर मोदी के साथ प्रबल जनमान्यता न होती तो वसुंधरा पीएम के पद को भी नाचीज साबित करके छोड़ देतीं।
उधर माधवराव को अकेले अर्जुन सिंह से ही समस्या नहीं रही। उन्हें अपने सुपीरियटी कॉम्पलेक्स की वजह से ही राघवगढ़ जैसी उनके साम्राज्य की नाचीज स्टेट के दिग्विजय सिंह को मुख्यमंत्री के रूप में हजम करने में काफी दिक्कत रही। संघर्ष और आंदोलनों की क्षमता से नगर पालिकाध्यक्ष से जनता दल में विधायकी तक का सफर तय करने वाले डॉ. गोविंद सिंह के प्रति दिग्विजय सिंह इसी कारण लालायित और लोलुप हुए थे कि उन्हें ग्वालियर चंबल इलाके में राजभक्ति की पीनक में डूबे रहने वाले कृत्रिम कांग्रेसियों की बजाय उन चेहरों की जरूरत थी जिनकी लोगों के बीच पकड़ हो। उनके प्रयास से डॉ. गोविंद सिंह कांग्रेस में शामिल हो गए लेकिन सिंधिया प्रजाति के कांग्रेसियों से उऩकी न निभ पाना पहले दिन से ही तय रहा। इस बीच माधवराव जी का एक दुर्घटना में आकस्मिक निधन हो गया और विरासत के चलते नादान उम्र-सोच के होते हुए भी ज्योतिरादित्य को गुरुतर राजनीतिक जिम्मेदारियां मिल गईं। जिसका बोझा लगता है कि वे उठा नहीं पा रहे।
ज्योतिरादित्य के पिता तक स्थितियां दूसरी थीं। एक तरह से वाजपेई कालीन जनसंघ को ज्योतिरादित्य की दादी विजयाराजे सिंधिया के रहमोकरम पर रफ्तार पकड़ने का मौका मिल पाया। जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जनसंघ जमात में उनकी हैसियत कितनी ऊंची होगी लेकिन विजयाराजे सिंधिया कई मामलों में बेहद उदार और महान गुणों की धनी होने के बावजूद संवैधानिक पदों को हिकारत की निगाह से देखती थीं। डीपी मिश्रा के अहंकार से आहत होकर विजयाराजे सिंधिया ने कांग्रेस पार्टी छोड़ी थी और इसके बाद उनकी हेकड़ी निकालने के लिए उन्होंने महल का पूरा खजाना खोलकर रातोंरात उनकी सरकार गिरवा दी थी। उस समय सभी ने उनसे मुख्यमंत्री बन जाने के लिए कहा लेकिन इसी कॉम्पलेक्स की वजह से उन्होंने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया और गोविंद नारायण सिंह को मुख्यमंत्री बनवा दिया था। जनता पार्टी की सरकार जब पहली बार केंद्र में गठित हुई उस समय भी उनके सामने यह प्रस्ताव आया था कि वे जनसंघ घटक के कोटे में सबसे पहले खुद मंत्री बनें लेकिन उन्हें स्वयं मंत्री पद लेना गवारा नहीं हुआ जबकि जनसंघ घटक के कोटे के चारों मंत्रियों के नाम उन्होंने ही तय किए थे। जिनमें अटल जी और आडवाणी के अलावा हाल ही में दिवंगत हुए आऱिफ बेग और सिकंदर बख्त के नाम शामिल थे।
माधवराव सिंधिया ने भी इसी कॉम्पलेक्स की वजह से मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने में हर अवसर पर अरुचि दिखाई लेकिन आज ज्योतिरादित्य को यह यथार्थ स्वीकार करना पड़ा है कि सीएम का रुतबा महाराज की हैसियत पर बहुत भारी पड़ जाता है इसलिए अपने पूर्वजों की आन तोड़कर वे मुख्यमंत्री पद संभालने के लिए राजी हो चुके हैं। लेकिन बराबरी से बात करने वाले पार्टी के सीनियर नेताओं को हजम करना वे नहीं सीख पा रहे और उनकी यह कमजोरी उनकी और उनकी पार्टी के अरमानों पर पानी फेरने का कारण बन सकती है। कांग्रेस आलाकमान ने इसी कारण नई दिल्ली में सिंधिया के सामने गोविंद सिंह की सिटिंग करा दी थी जिसके बाद दोनों ओर से पार्टी के एकजुट होने के बयान जारी किए गए थे। लेकिन सिंधिया के कृपापात्र भिंड के कांग्रेस के अध्यक्ष के भड़काऊ बयान से गोविंद सिंह समर्थक फिर बिदके हुए हैं। अगर सिंधिया को अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद आने वाले चुनाव तक किसी ऊंच-नीच का सामना करना पड़ता है तो उसकी मुख्य वजह शाही मानसिकता से उनका न उबर पाना ही होगी।
हालांकि विरासत के गुमान को लेकर शुरुआत में जो कहा गया है उससे इतर भी एक सच है और यह सच इस बात का है कि जो लोग जमीन से उठकर सिंहासन पर पहुंचे हैं उन्होंने वर्चस्व के विरासती दस्तूर को नई हवा दी है। राजनीति में होश संभालते समय उन्हें नेता और कार्यकर्ता के बीच जिस रिश्ते से प्रोत्साहन मिला उस स्वस्थ लोकतांत्रिक रिश्ते का ताना-बाना तोड़कर वे साहब और कारिंदे के रिश्ते को बरत रहे हैं और फिर भी उनकी बरक्कत हो रही है। ऐसे में पुश्तैनी बादशाही का मिजाज फिर से खाद-पानी अनुभव करने लगा हो तो कोई अजीब बात नहीं है।

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