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अब यूपी के मतदाताओं की अर्हता पर प्रश्नचिन्ह

मुक्त विचार
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समाजवादी पार्टी की महाबैठक में जो नजारा सामने आया उससे उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की अर्हता पर प्रश्नचिन्ह लग गया है। क्या ऐसे प्रदेश के लोगों को लोकतांत्रिक अधिकार होना चाहिए जिन्हें यह बोध न हो कि वे ही सरकारों के भाग्य विधाता हैं। सपा के महासम्मेलन में जिस तरह के भाषण हुए और जो राज खोले गए वह समाज के प्रति घोर शून्यता में ही संभव हैं। राजशाही तक में भी ऐसी निरंकुशता दुर्लभ रही है। भाषणों से लग रहा था कि मुलायम सिंह एंड फैमिली को अपने फैसलों का औचित्य जनता जनार्दन के सामने साबित करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि वे शहंशाहों से भी बड़े शहंशाह हैं। मुलायम सिंह के राजनीतिक उत्कर्ष के पीछे उच्च परंपराओं का कोई योगदान नहीं है जबकि लोकतंत्र में ही नहीं राजतंत्र में भी इसका तकाजा रहता है। धृष्टता की यह पराकाष्ठा जंगलराज से भी पीछे के युग में भारतीय समाज के लौट जाने की ओर इशारा करती है।
मुलायम सिंह ने कहा कि वे अमर सिंह को इसलिए नहीं छोड़ सकते क्योंकि आय से अधिक संपत्ति के मामले में उन्हें सजा हो जाती अगर अमर सिंह के अंदर तिकड़मबाजी की अद्भुत कला न होती। लोकतंत्र की सबसे बड़ी लाक्षणिक विशेषता है रूल ऑफ लॉ का सम्मान लेकिन अमर सिंह के ऐसे पराक्रम को महिमामंडित किया जाएगा तो क्या रूल ऑफ लॉ सम्भव है। रूल ऑफ लॉ और उच्च परम्पराओं को नपुंसकों का आवरण सिद्ध करने का काम मुलायम सिंह ने पहली बार नहीं किया। कहा जाए तो सच यह होगा कि इन मान्यताओं को ही झुठलाते हुए राजनीति के शिखऱ पर पहुंचे हैं नेताजी। कुछ दिनों पहले मुलायम सिंह ने यह भी कहा था कि जब वे रक्षा मंत्री थे उन्होंने बोफोर्स सौदे में दलाली की जांच की फाइल गायब करा दी थी। यह गुनाह है या किसी योग्यता का प्रमाणपत्र कोई यह बताए। मुलायम सिंह ने सार्वजनिक रूप से कहा कि नेताओं के खिलाफ मामले नहीं चलना चाहिए इससे देश कमजोर होता है, क्या दलील है। उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को ऐसे बयान देने वालों के प्रति वितृष्णा क्यों नहीं हुई।
उत्तर प्रदेश की जनता ने इस तरह की अदाओं को शिरोधार्य किया तो यही मानना पड़ेगा कि नेताजी की यह वंदनीय योग्यता है और जो समाज बौद्धिक स्तर पर इतना कुंठित हो उसे लोकतांत्रिक अधिकार देकर बंदर के हाथों में उस्तरा पकड़वाने की क्या तुक है, यह सवाल इस संदर्भ में प्रासंगिक हो गया है। मुलायम सिंह जैसे लोग अगर लोहिया के नाम की दुहाई देकर सफल रहते हैं तो यह माना जाएगा कि उस समाज में जिसमें वे कार्यरत हैं विवेक के स्तर पर बहुत ज्यादा गिरावट है। ऐसे समाज के उत्थान के लिए पर्याप्त होमवर्क होना चाहिए। तभी यह समाज लोकतांत्रिक अधिकारों के उपयोग का अधिकारी बन सकता है।
लोहिया लोकतांत्रिक राजनीति की उच्च परंपराओं के देश में अनुशीलन के लिए अतिवाद की हद तक चले जाते थे। देश में केरल में बनी पहली गैर कांग्रेसी सरकार का अंत उन्होंने उस सरकार के मानस पिता होने के बावजूद इसी अतिवाद के चलते कराया था। लोहिया से मुलायम सिंह की राजनीतिक शैली का साम्य ढूंढना असम्भव है। लोहिया तो लोकतांत्रिक राजनीति के शिखर प्रतिमानों के हिमायती थे लेकिन मुलायम सिंह की तो करनी में लोकतंत्र के बुनियादी सोपान तक पर आस्था नहीं झलकती। लोहिया सत्ता के विकेंद्रीकरण के प्रबल पक्षधर थे लेकिन मुलायम सिंह को जनता दल शासन में न तो मुख्यमंत्री का पद छोड़ना गवारा हुआ था न प्रदेश अध्यक्ष का, जनता दल में जब लोहिया के आदर्शों के अनुरूप एक व्यक्ति एक पद का सिद्धांत लागू किया गया तो तत्कालीन मुख्यमंत्री के रूप में मुलायम सिंह यादव ने प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए रामपूजन पटेल को मारपीट कर भगवा दिया था। मुलायम सिंह का वास्तव में आदर्श कौन है, यह कहना मुश्किल है, लेकिन वे जिस मिजाज के नेता हैं उसके चलते उन्हें चंद्रशेखर बहुत लुभाते रहे क्योंकि चंद्रशेखर ने भी जनता पार्टी की अध्यक्षी पर कब्जा बनाए रखने के लिए रामजेठमलानी और सुब्रमण्यम स्वामी का ऐसा ही हश्र कराया था।
मुलायम सिंह हों या मायावती प्रगतिशील तबके ने उनके हाथों में सत्ता पहुंचने का स्वागत किया था क्योंकि उन्हें राजनीतिक लोकतंत्र के लिए पूर्व शर्त के बतौर सामाजिक लोकतंत्र की सीढ़ी इसमें दिखाई दी थी लेकिन इन दोनों ही नेताओं ने लोगों के भरोसे के साथ विश्वासघात किया और वर्ण व्यवस्था को निष्प्रभावी करने की बजाय निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए इन्होंने वर्ण व्यवस्था के पुनरोत्थान में संजीवनी की भूमिका अदा की।
आज अगर उत्तर प्रदेश के जागरूक अवाम को अखिलेश से हमदर्दी है तो इसलिए नहीं कि वे उनके बादशाह मुलायम सिंह बेटे हैं। स्थिति तो यह है कि जब मुलायम सिंह ने नौसीखिए अखिलेश को सत्ता पर अपना पुश्तैनी अधिकार सिद्ध करने के लिए मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया था तो बुद्धिजीवियों को यह बहुत नागवार गुजरा था। लोग कहते थे कि परिवार में ही से किसी को बनाना था तो मुलायम सिंह शिवपाल सिंह को मुख्यमंत्री बना देते। जिनके लिए उन्होंने आजम खां का दावा दरकिनार कर खुद के राष्ट्रीय राजनीति में चले जाने पर शिवपाल को अपनी जगह सपा विधानमंडल दल के नेता पद पर थोप दिया था। जबकि मुसलमानों के सबसे बड़े खैरख्वाह के रूप में अपने को पेश करने में मुलायम सिंह थकते नहीं थे। लेकिन अखिलेश ने काम करते हुए आशा जगाई कि वे अपने पिता जैसे नेताओं द्वारा फैलाई गई राजनीतिक कचरे को कुछ हद तक हटाने की कोशिश कर रहे हैं। चुनाव बाहुबलियों, थैलीशाहों और तिकड़मबाजों के हुनर से जीते जाते हैं। मुलायम सिंह के इस लोकतंत्र विरोधी विश्वास के विपरीत विकास और छवि के आधार पर सफलता के लोकतांत्रिक प्रतिमानों पर अखिलेश ने विश्वास किया।
मुलायम सिंह कैसे भी रहे हों लेकिन शायद उन्हें अपने बेटे की इस मामले में हो रही ताऱीफ से खुशी रही होगी लेकिन इसके बावजूद वे अखिलेश के प्रति निर्मम हुए तो इसकी वजह न शिवपाल हैं न कोई और, यहां तक कि अमर सिंह भी नहीं। यह बात अखिलेश भी जानते हैं लेकिन जो कलह का असली सूत्रधार है उसका खुलासा करके अखिलेश अपने पिता की मर्यादा की गरिमा को उनके जीवन के अंतिम काल में ठेस नहीं पहुंचाना चाहते पर मुलायम सिंह ने खुद ही इस लज्जित करने वाली वास्तविकता का अनावरण मोदी की मां भक्ति का असंगत उदाहरण अखिलेश को अपनी विमाता के प्रति समर्पण रखने की सार्वजनिक नसीहत के साथ दिया। अमर सिंह अखिलेश की विमाता के सबसे बड़े साधक बन रहे हैं इसलिए अमर सिंह पर निशाना साधकर अखिलेश ने अपनी विमाता की लाइफलाइन पर प्रहार करने चेष्टा की है। शिवपाल सिंह का अमर सिंह के प्रति जो अथाह प्रेम झलका है उसमें भी अखिलेश की विमाता से तार जोड़कर बाजी पलट डालने का षड्यंत्रकारी मंसूबा निहित है। गो कि भाई से सगा बेटा की कहावत चरितार्थ करते हुए मुलायम सिंह ने गत विधानसभा के चुनाव के बाद उनको किनारे करके अखिलेश की जो ताजपोशी करा दी थी उसकी कसक उऩके मन से निकल नहीं सकती।
शिवपाल तो इस मामले में स्तब्ध करने वाली हद तक पहुंच गए। जब उन्होंने मंच से अखिलेश का नाम लिए बिना उन्हें संबोधित करते हुए कहा कि तुम तो अमर सिंह के पैरों की धूल भी नहीं हो। जो जनर्चाओं में में दलाल और भड़ुए की संज्ञा से पहचाना जाता हो। उस शख्सियत को पराकाष्ठा तक महान साबित करके शिवपाल ने कोई अजूबा नहीं किया क्योंकि उत्तर प्रदेश का अवाम शहजोर नेता की हर हठधर्मी घोषणा के सामने नतमस्तक होने के लिए जाना जाने लगा है। अगर ऐसा नहीं होता तो शिवपाल यह कह पाते कि समाजवादी पार्टी में जमीन पर कब्जा करने वाले और बेईमान लोगों के लिए कोई जगह नहीं रहने दी जाएगी। शिवपाल की करनी से परिचित लोगों की प्रतिक्रिया इस पर क्या होनी चाहिए, इसे कहने की जरूरत नहीं।
मुलायम सिंह की फिर भी एक मजबूरी है कि वे अखिलेश के भविष्य को बर्बाद होते किसी भी तरह नहीं देख सकते। जिसके पीछे विशुद्ध पुत्रमोह का स्वार्थ है इसलिए उन्होंने सपा की ऐतिहासिक बैठक में अखिलेश को जमकर फटकार तो लगाई लेकिन शिवपाल की उन्हें हटाकर खुद मुख्यमंत्री बन जाने की बात को उन्होंने एक करीने से किनारे कर दिया। हो सकता है कि अंदरखाने वे अखिलेश को समझा रहे हों कि किसी भी तरह चुनाव निकल जाने दो वे तो शिवपाल को सहलाने की कोशिश इसलिए कर रहे हैं कि शिवपाल चुनाव तक न भड़कें। इसके बाद जो तुम चाहो वो करना। शायद मुलायम सिंह की इसी समझाइश की वजह से अखिलेश रात होते-होते तक नरम हो गए और शिवपाल को उनके सारे विाभाग वापस करने व बर्खास्त मंत्रियों को बहाल करने का फार्मूले पर उनके सहमत हो जाने की खबरें आने लगीं। लेकिन पारिवारिक सत्ता संघर्ष में उत्तर प्रदेश की जनता का दौर जिस तरह मूकदर्शक बन जाने के बतौर सामने आया वह भारतीय लोकंतत्र की गुणवत्ता और स्थायित्व के लिए एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है। क्या इस घटनाक्रम से उत्तर प्रदेश की जनता में यह चेतना आएगी कि लोकतंत्र में कोई परिवार या व्यक्ति नहीं व्यवस्था की असली मालिक है जिसे हर फैसले के लिए उसके प्रति नेता को अनिवार्य रूप से मुखातिब होना चाहिए, देखिए होता है क्या।

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