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हर बैरम खां आज हैसियत में

मुक्त विचार
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समाजवादी पार्टी में चल रहे अंतर्कलह को लेकर अटकलबाजियों का दौर अभी भी खत्म नहीं हुआ है। शुरू में मारा गया ब्रह्मचारी की हालत थी जब अखिलेश यादव के एक-एक समर्थक को पार्टी से निकाला जा रहा था और वे जिन दागियों को मंत्रिमंडल से निकाल रहे थे उन्हें वापस लेने के लिए उऩको मजबूर किया जा रहा था। अखिलेश की इस कातर स्थिति की इंतहा तब हो गई जब मुलायम सिंह यादव द्वारा पार्टी कार्यालय में बुलाए गए सम्मेलन में न केवल वे अपनी आन तोड़कर पहुंचे बल्कि अपनी बेबसी पर रो तक पड़े, लेकिन यह एक अंतरिम और दिखावटी फेस था। अंततोगत्वा जो निष्कर्ष निकलकर सामने आया उसमें बादशाह के सारे बैरम खां अपनी हैसियत में नजर आने लगे। न तो अखिलेश ने शिवपाल यादव की मंत्रिमंडल में वापसी की और न तो उनके समर्थक उन मंत्रियों की जिनको शिवपाल के नजदीकी होने की वजह से पैदल किया गया था। भ्रम यह था कि हमेशा की तरह एक बार फिर पिताश्री अपने पुत्र पर बीटो का इस्तेमाल करेंगे और अखिलेश की औकात पार्टी के लोगों को समझ में आ जाएगी।
लेकिन मुलायम सिंह की त्यौरी अखिलेश की बेअदबी को लेकर बिल्कुल नहीं चढ़ी उलटे उन्होंने अखिलेश की प्रभुता को मान्य करने का अहसास दिलाते हुए यह कह डाला कि मंत्रियों को वापस लेने न लेने का अधिकार सीएम को है, वे जो चाहें करें। उन्होंने एक ओर यह कहा कि चुनाव के बाद पार्टी को बहुमत मिलने पर कौन सीएम होगा, यह प्रक्रिया के तौर पर कहा जाए तो पार्टी विधानमंडल द्वारा तय किया जाएगा लेकिन अभी अखिलेश ही सीएम बने रहेंगे जिस पर किसी को एेतराज नहीं है। इस दौरान वह खासतौर पर शिवपाल की ओर मुखातिब होकर बोले कि क्या अखिलेश को सीएम बनाए जाने पर पार्टी में किसी को विरोध है। अचकचाए शिवपाल मुलायम सिंह के इस पैंतरे के आगे अवाक हो गए। नेताजी की बात का जवाब क्या दें, यह उनसे सोचते तक नहीं बना।
उस दिन से आज तक शिवपाल अपनी तमाम धमाचौकड़ी के बावजूद अखिलेश के सामने बौनेपन का अहसास करने को मजबूर हैं। वे प्रदेश अध्यक्ष के अधिकार का इस्तेमाल करके भी अखिलेश का क्या बिगाड़ पा रहे हैं। अखिलेश ने जनेश्वर मिश्र ट्रस्ट के नाम से समानांतर पार्टी चला दी है जिसके सामने पार्टी संगठन बेमानी साबित होता जा रहा है। शिवपाल ने पवन पांडेय को पार्टी से निकाला लेकिन उनकी चिट्ठी के बावजूद अखिलेश ने उन्हें सरकार से नहीं हटाया। सुनील यादव साजन हों या आनंद भदौरिया पार्टी से निष्कासित होने के बावजूद अखिलेश के खुले संरक्षण व प्रोत्साहन से न केवल वे बचे हुए हैं बल्कि उऩका कद सपा में बढ़ता जा रहा है। शिवपाल सिंह छटपटा रहे हैं लेकिन मुलायम सिंह अखिलेश को बिल्कुल नहीं टोक रहे हैं कि पार्टी सिस्टम को ठल्लू रखने की यह हरकत क्यों कर रहे हैं। कल तक अखिलेश बेचारे दिख रहे थे पर आज बेचारगी की हालत शिवपाल की हो गई है। शायद अंदर ही अंदर किंकर्तव्यविमूढ़ता महसूस कर रहे होंगे कि ऐसी हालत में क्या करें क्या न करें।
अखिलेश की गत वर्ष हुए पंचायत चुनाव तक इमेज डमी मुख्यमंत्री की रही। प्रदेश में साढ़े चार मुख्यमंत्री के बीच अखिलेश के पिसे होने की बात कहकर उनके इकबाल की ऐसी-तैसी की जाती रही। उनके सारे चाचा सुपर सीएम थे पर आज क्या हालात हैं।
बात अकेले शिवपाल के बोनसाई हो जाने की नहीं है। रामगोपाल यादव उर्फ प्रोफेसर की हैसियत कल तक पार्टी में इतनी शक्तिशाली थी कि अखिलेश तो क्या उनके पिता मुलायम सिंह तक को उनके हस्तक्षेप पर अपना फैसला बदलना पड़ता था। उनका पार्टी से निष्कासन हो चुका है और अब वे राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए अखिलेश के प्रति अपनी वफादारी का पहाड़ा पढ़ने के अलावा किसी काम के नहीं रह गए हैं। कल तक वे बच्चे का गार्जियन थे आज उनका सूचकांक सीएम भतीजे के सबसे वफादार सिपहसालार के रूप में सिमट गया है।
एक और मुख्यमंत्री थे चचा अाजम खां। मुलायम सिंह को शीशे में उतारने के लिए उनके बर्थ-डे को बढ़-चढ़कर मनाने के उत्साह में उन्होंने इस्लामी उसूलों तक को एक किनारे करने में संकोच नहीं किया जबकि उनका दावा यह है कि वे सबसे सच्चे मुसलमान हैं लेकिन इतनी गुलामी करने के बावजूद खां साहब मुलायम सिंह को अमर प्रेम से नहीं रोक पाए। इस बीच आशू मलिक जैसा उनके सामने पिद्दी न पिद्दी का शोरबा मुस्लिम नेता हैसियत में उनके बराबर पर खड़ा किया जाने लगा नतीजतन यह सुपर सीएम आज अखिलेश की निगाह में चढ़ने की उछलकूद अपना गुरूर भूलकर करने में जुटा है। यानी खां साहब उर्फ वटवृक्ष पार्टी हाईकमान के चक्रव्यूह में उलझकर निपट चुके हैं।
ऐसे में अगर यहा जा रहा है कि सपा की सारी उठापटक नेताजी द्वारा पहले से स्क्रिप्टेड है तो इसमें कुछ न कुछ वजन जरूर है। आज निरीह अखिलेश के विराट स्वरूप की चकाचौंध में पार्टी और परिवार के सारे महारथी अपनी पहचान खोते दिख रहे हैं।
ताजा सर्वे बता रहा है कि अखिलेश हमदर्दी के चलते मुख्यमंत्री के तौर पर प्रदेश के सबसे अधिक लोगों की पसंद बन गए हैं जबकि शिवपाल प्रदेश की जनता के सबसे बड़े खलनायक के तौर पर बदनाम हो चुके हैं। मुलायम सिंह की लोकप्रियता का ग्राफ भी अखिलेश को प्रताड़ित करने के इंप्रेशन के चलते नीचे चला गया है। मुलायम सिंह को इससे क्या तकलीफ। उन्होंने तो अखिलेश की इमेज बिल्डिंग का ध्येय बहुत पहले तय कर लिया था और घटनाओं की चाल इसकी पूर्ति करने वाली है।
2012 के चुनाव में अखिलेश कृपा पर बने मुख्यमंत्री थे लेकिन आज वे इस पद के अपने बूते पर सबसे शक्तिशाली दावेदार के तौर पर उभर चुके हैं। मुलायम सिंह की साधना और आराधना की इससे बड़ी सफलता क्या हो सकती है। भविष्य में देश के नेता के रूप में भी इस पूरी उठापटक ने अखिलेश की शख्सियत को मजबूती प्रदत्त कर दी है। मुलायम सिंह की पीढ़ी का दौर खत्म हो चुका है। राहुल के बारे में यह सोचा जाना गलत नहीं है कि वे अनिच्छुक राजनीतिज्ञ हैं जो किसी भी दिन धमाचौकड़ी का शौक पूरा करके खुद ही ट्रैक बदलने वाले हैं। नीतीश कुमार के लिए भी आगे की पारी खेलने का वक्त सीमित है। इस तरह गैर भाजपा राजनीतिक बिरादरी में एक ही चेहरा भविष्य के लिए दैदीप्यमान है और वह है अखिलेश का चेहरा। क्या यह हालात मुलायम सिंह की सोची-समझी रणनीति का परिणाम नहीं माना जाना चाहिए।

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