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अपनी फजीहत कराने में कांग्रेस को आ रहा है कौन सा मजा

मुक्त विचार
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कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के लिए अपने अभियान का श्रीगणेश मुख्यमंत्री के रूप में शीला दीक्षित को प्रोजेक्ट करते हुए ऐसे किया जैसे सचमुच पार्टी ने रातोंरात प्रेशर गुट की हैसियत से उबरकर उत्तर प्रदेश की सत्ता की दावेदारी की शक्ति संजो ली हो। इस शेखचिल्ली सपने को गंभीरता पार्टी ने उस समय प्रदान की जब राहुल गांधी ने देवरिया से दिल्ली तक की किसान यात्रा निकाली और जगह-जगह खाट सभाएं आयोजित कीं। इसके पहले ही चुनाव जिताने की करिश्माई ताकत से लैस घोषित किए जा चुके प्रशांत किशोर को सबसे पहले इंगेज करके कांग्रेस ने मनोवैज्ञानिक इंप्रैशन जमाने का दांव खेल दिया था। हालांकि भारत का लोकतंत्र अब नौसिखिया नहीं रह गया इसलिए आम मतदाता तक अतार्किक चमत्कार की प्रत्याशा में विश्वास करना छोड़ चुके हैं। फिर भी कभी-कभी दिली आशा और संभावना के बीच ऐसी फंतासी संजो ली जाती है कि स्वप्नवत लक्ष्य साकार करने का मुगालता लोग पाल लेते हैं। कांग्रेस के लोगों के साथ में भी ऐसी ही विडम्बना चरितार्थ हो रही थी।
वे हकीकत को जानते थे लेकिन भावनात्मक घटाटोप के चलते झूठी उम्मीद की मृगतृष्णा पर विश्वास करने को मजबूर हो रहे थे।
इस बीच राहुल गांधी की यात्रा और खाट सभाओं के नाटकीय प्रहसन को समाज की क्रीमीलेयर में काफी पसंद किया गया। इसके चलते कांग्रेस के रातोंरात उत्तर प्रदेश में सबसे मजबूत विकल्प के रूप में उभरने की प्रतीति के मनोरोग को पार्टी के शुभाकांक्षियों में बेहद बल मिला।
बहरहाल यह सिर्फ एक यूटोपिया था लेकिन वास्तविकता में कांग्रेस पिछले चुनाव की तुलना तक में काफी दयनीय और खोखली हालत में पहुंच गई थी। इस हकीकत के फीडबैक से भी राहुल गांधी अवगत हो रहे थे इसके चलते उन्हें चुनाव के पहले अपनी लाज बचाने के लिए औकात पर आने की समझ बनानी पड़ रही थी। समाजवादी पार्टी से गठबंधन के लिए प्रियंका के इशारे पर कांग्रेस पार्टी के रणनीतिकार प्रशांत किशोर (पीके) का शिवपाल और मुलायम सिंह यादव की ड्योढ़ी पर हाजिरी बजाने के लिए पहुंचना इस भद को उजागर कर गया।
हालांकि अखिलेश और राहुल के बीच हाल में एक केमिस्ट्री बनी है जो पीढ़ियों के बीच सत्ता हस्तांतरण की समझ पर आधारित है। इसलिए अपनी दम पर एक बार फिर सत्ता में वापसी का अति आत्मविश्वास संजोये अखिलेश यादव में राहुल के नाते कांग्रेस से गठबंधन को लेकर कहीं न कहीं कोई सॉफ्ट कॉर्नर है। पहले गठबंधन राजनीति का निषेध करने के लिए ही उन्होंने अपने चाचा शिवपाल की मुख्तार अंसारी से लेकर अजीत सिंह तक से लसलसाने की हरकत पर बगावत की मुद्रा अख्तियार की थी लेकिन अचानक वे पार्टी की महागठबंधन बनाने की कोशिश पर उदार हुए तो उसकी वजह राहुल से उनकी केमिस्ट्री को ही माना जाना चाहिए। अपनी विकास रथयात्रा के प्रस्थान के समय इंटरव्यू में उन्होंने पार्टी हाईकमान की गठबंधन की कोशिशों के प्रति जो सकारात्मक दृष्टिकोण व्यक्त किया उसके पीछे उनका राहुल को लेकर सॉफ्ट कॉर्नर ही प्रमुख कारक था।
लेकिन सभी जानते हैं कि मुलायम सिंह का राजनीतिक चरित्र क्या है। वे सर्वभक्षी प्रजाति के राजनीतिक जंतु हैं जिन्होंने कम्युनिस्टों तक को ग्रास बनाने की हविश अपनाई और उत्तर प्रदेश में अगर आज कम्युनिस्टों का वजूद खत्म हुआ है तो उसके पीछे कहीं न कहीं मुलायम सिंह से उनकी दोस्ती मुख्य कारण रहा है। भाजपा भले ही कांग्रेस मु्क्त भारत की बात करती हो लेकिन इसके लिए जो लक्ष्य साधना मुलायम सिंह ने की उसमें भाजपा कहीं नहीं ठहरती। सभी जानते हैं कि सोनिया गांधी राजनीति में न आएं इसके लिए मुलायम सिंह ने अमिताभ बच्चन को एक समय अनुबंधित कर रखा था। मुलायम सिंह का गणित यह था कि जनमानस में अगर कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सर्वाइवल की हर गुंजाइश से परे हो जाएगी तो सपा मुस्लिम मतदाताओं पर एकमुश्त अधिकार कायम कर लेगी और इसके बाद राष्ट्रीय राजनीति में भी सिक्का जमाने के लिए अवसर उसके और अनुकूल हो जाएंगे। सोनिया गांधी को राजनीति में इंट्री करते ही मुलायम सिंह की इस मानसिकता का अनुमान हो गया। जिसकी वजह से उन्होंने जिस तरह से पत्ते खेले उससे अमिताभ परिवार से उनका रिश्ता खत्म हो गया और स्वर्गीय पुत्तू अवस्थी जैसे दगाबाज बेनकाब हो गए।
मुलायम सिंह के इस सर्वसत्ता वाद में अभी भी कोई परिवर्तन आया है , यह मुगालता किसी को नहीं होना चाहिए। इसलिए जानने वाले जानते हैं कि महागठबंधन की कसरत चाहे जितनी हो लेकिन मुलायम सिंह के रहते इसके फलित होने की गुंजाइस न के बराबर है। मुलायम सिंह गठबंधन के लिए जो फार्मूला पेश करेंगे उसमें कांग्रेस को 20-25 से ज्यादा सीटें देने की पेशकश संभव नहीं है और कांग्रेस पार्टी इस पेशकश पर तभी समझौता कर सकती है जब उसका स्वाभिमान पूरी तरह खत्म हो जाए। इसलिए पीके ने मुलायम सिंह से जो वार्ता की उसमें कांग्रेस की दीनता तो जगजाहिर हुई है लेकिन पीके जिन्होंने कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में मजबूती दिलाने के नाम पर मोटी रकम लेकर जो ठेका लिया है उसे पूरा करने में वे एक परसेंट भी योगदान करने में सफल नहीं हो पाए हैं।
सही बात तो यह है कि पीके रामवाण का सहारा लेते हुए कांग्रेस ने छोटे दलों से स्थानीय स्तर के तालमेल के अलावा कोई और चुनावी गठबंधन न करने का जो आत्मविश्वास अपने दम पर स्थिति सुधारने का दावा करते हुए जाहिर किया था उसे नई स्थितियां पलीता लगा चुकी हैं। कांग्रेस को एक न एक दिन यह सोचना होगा कि उस पर इतनी ज्यादा मूर्खताएं क्यों तारी होती जा रही हैं। अगर उसने यह नहीं सोचा तो कांग्रेस पार्टी का वजूद उत्तर प्रदेश से हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा। हालांकि सही बात यह है कि अब कांग्रेस पार्टी कुछ सोच भी ले तब भी स्थितियां उसके काबू से बाहर हो चुकी हैं और तमिलनाडु व पश्चिम बंगाल के बाद एक और बड़े राज्य में केवल प्रतीकात्मक हैसियत में रह गई है। कांग्रेस की राष्ट्रीय हैसियत के लिए उत्तर प्रदेश में उसका मुख्य मुकाबले से स्थायी रूप से बाहर हो जाने का इंप्रैशन बेहद घातक है।
कांग्रेस में दरबारी षड्यंत्र का बोलबाला है इसलिए उसकी जिजीविषा लगातार भौंथरी होती जा रही है। षड्यंत्र की जड़ें कितनी गहरी हैं इसका अनुमान मुलायम सिंह के एजेंट में शुमार प्रमोद तिवारी और उनके चमचे की हैसियत में सिमट चुके पूर्व आईएएस पीएल पुनिया को पार्टी द्वारा राज्यसभा में भेजने के फैसले के समय ही लग चुका था। यह एजेंट कांग्रेस पार्टी में जो भी करेंगे वह मुलायम सिंह के हितसाधन के लिए करेंगे। यह तो बहुत पहले स्पष्ट था इसलिए अब अगर कांग्रेस अपना बलिदान करके मुलायम सिंह के राजनीतिक हितों का पृष्ठपोषण कर रही है तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
नरसिंहा राव के समय उत्तर प्रदेश में कांग्रेस समाप्त प्राय हो चुकी थी। ऐसे समय सोनिया गांधी ने जब कांग्रेस की बागडोर को हस्तगत किया तो उन्होंने पार्टी की कमजोरियों को जानने और उन्हें दूर करने का जबर्दस्त होमवर्क किया। सोनिया गांधी ने इसी के बाद सलमान खुर्शीद को उत्तर प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने का फैसला किया। जिसका बहुत ही अनुकूल नतीजा सामने आया। कांग्रेस पार्टी जो लोकसभा चुनाव में उस समय 2 सीटें तक जीतने की उम्मीद गंवा चुकी थी उसने एक दर्जन सीटें जीतीं तो तहलका मच गया।
कांग्रेस के पुनर्जीवन की इस आहट से कोई सबसे ज्यादा बौखलाया तो वह समाजवादी पार्टी थी लेकिन यह रणनीति कांग्रेस पार्टी बरकरार नहीं रख सकी। कांग्रेस पार्टी में प्रभावी वर्गशक्तियों ने नेतृत्व को बहका कर सलमान खुर्शीद से पल्ला झाड़ने के लिए प्रेरित कर दिया और इसके बाद कांग्रेस का दूसरे परंपरागत वर्ग का विश्वास फिर संजोने का प्रयोग बहुत कामयाब साबित नहीं हुआ। इसके बावजूद कांग्रेस नेतृत्व ने कोई सबक नहीं लिया। कांग्रेस की अस्थिर मनोवृत्ति का सबसे ज्यादा लाभ समाजवादी पार्टी ने ही उठाया है जो सबसे पहले यह चाहती है कि भले ही भाजपा कितनी भी कद्दावर हो जाए लेकिन कांग्रेस पार्टी को पनपने का कोई अवसर न रहे। समाजवादी पार्टी मुसलमानों को लाचार करने की रणनीति पर काम करती है।ऐसे में कांग्रेस पार्टी अगर उससे भाजपा से भी ज्यादा दुश्मन नजर आए तो आश्चर्य क्या है।
गत विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी ने कमर कसकर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की वापसी के लिए मुकाबला किया था। जिसके नतीजे भी कुल मिलाकर अच्छे ही रहे थे। हालांकि कांग्रेस पार्टी को सीटें तो 30 के अरीब-करीब में ही मिल पाई थीं लेकिन जहां पहले कांग्रेस 4-5 हजार वोटों के औसत पर प्रदेश की हर विधानसभा सीट पर सिमट गई थी वहीं 2012 में उसने 25 से 30 हजार वोट तमाम निर्वाचन क्षेत्रों में जुटाया। यह असाधारण सफलता थी जिस पर कांग्रेस नेतृत्व को गर्व होना चाहिए था पर उसे षड्यंत्रकारियों ने मजबूर किया कि वह उत्तर प्रदेश विधानसभा 2012 के चुनाव परिणाम के आईने में हीन ग्रंथि से ग्रसित अपनी हकीकत को उजागर करे। जो कारक कांग्रेस पार्टी की स्थिति में असाधारण बढ़ोत्तरी में सहायक बने थे उन सभी को इस हीन ग्रंथि के आधार पर तिलांजलि के लिए पार्टी हाईकमान का माइंडसेट बनाय़ा गया। इसके चलते कांग्रेस के प्रदेश में तत्कालीन प्रभारी से लेकर सारे जिम्मेदारों को किनारे का रास्ता दिखा दिया गया।
सन्निकट चुनाव के लिए कांग्रेस के नये कर्णधारों के सामने चुनौती यही होनी चाहिए कि अगर इससे पहले के चुनावों में कांग्रेस की गोटियां सही नहीं थीं तो उन्हें बदलने के बाद क्या आने वाले चुनाव में पार्टी को वे चमत्कारिक सफलता दिला पाएंगे। अगर इस दृष्टि से सोचें तो जो स्थिति है वो यह प्रकट करती है कि कांग्रेस की हालत पुरानी नीतियों से पल्ला झाड़ने के बाद और भी ज्यादा खराब हो चुकी है। कांग्रेस अगर आज सपा जैसी पार्टी के साथ गठबंधन का रास्ता ढूंढ रही है तो यह इस बात का सूचक है कि उसका ग्राफ कितना नीचे जा चुका है। कांग्रेस अगर अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को प्रतिबद्ध बनाने के लिए मशक्कत करती होती तो यह नौबत नहीं आ सकती थी।
कांग्रेस के विधायक आज पार्टी नेतृत्व पर समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन का दबाव बनाए हुए हैं तो उसकी मुख्य वजह यह है कि उन्हें यह साफ दिखाई दे रहा है कि पार्टी के नाम पर उनकी सीट बची रहना असंभव है। पीके इवेंट मैनेजर हो सकते हैं लेकिन उन्हें यह समझ नहीं है कि पार्टी का एक्सक्लूसिव वोटर कितना जरूरी है और एक्सक्लूसिव वोटर तैयार करने के लिए कौन से राजनीतिक मुद्दे अपनाए जाने चाहिए। बिहार में पीके इसलिए सफल हो गए क्योंकि मोहन भागवत के आरक्षण संबंधी बयान के बाद पिछड़े और दलित भाजपा से बिफऱ गए थे और पीके ने इसे और बल प्रदान करने की इवेंट मैनेजरी की थी, लेकिन उत्तर प्रदेश में पीके के मंत्र बेअसर साबित हो गए। उन्होंने मुख्यमंत्री पद के लिए मुस्लिम चेहरा पेश करने की बजाय कांग्रेस पार्टी को ब्राह्मण चेहरे की पेशकश के आधार पर कारगर व्यूह रचना का मशविरा दिया जबकि उत्तर प्रदेश में इस समय ठाकुर और ब्राह्मण जातियों के बीच राष्ट्रवाद के नाम पर इस कदर भाजपा की हवा चल रही है कि एक-एक वोट दूसरी पार्टी को जाने के लाले हैं। जाहिर है कि ऐसे में शीला दीक्षित हों या कोई और, अगर भाजपा बल्क में ब्राह्मण वोटों को अपने पाले में करने का खेल खेल रही है तो भाजपा का खेल कामयाब नहीं हो सकता। दूसरी ओर अगर कांग्रेस ने मुख्यमंत्री पद के लिए मुस्लिम चेहरा प्रोजेक्ट किया होता तो स्थिति शायद बहुत बेहतर हो सकती थी। मुस्लिम वोटरों की पहली पसंद कांग्रेस है और कांग्रेस पार्टी की मुस्लिम मुख्यमंत्री की पहल इस पसंद को और ज्यादा मजबूत करती। उत्तर प्रदेश में मुसलमान वोट 23 से 25 प्रतिशत तक है। इतना बड़ा वोट बैंक जिस पार्टी के साथ उजागर हो जाएगा उस पार्टी को दूसरी कौमों का वोट बटोरने में सहूलियत क्यों न होगी। लेकिन कांग्रेस ने इस रणनीति के मर्म को क्यों नहीं समझा, यह एक पहेली हो सकती है।

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