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जानिए इंदौर के एक सांसद के बारे में जबलपुर हाईकोर्ट ने ऐसा क्या कमेंट लिखा जो आज उत्तर प्रदेश की राजनीति को झकझोरने का कारण बन रहा है

मुक्त विचार
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इंदौर के एक सांसद शायद 70 के दशक में थे जिनके खिलाफ दिल्ली प्रेस की मशहूर पत्रिका सरिता ने कोई आलेख छाप दिया। उन्होंने मानहानि का मुकदमा दायर किया और यह मुकदमा हाईकोर्ट तक चला। जहां तक मुझे याद पड़ता है सांसद का नाम कुछ टोपीवाला था और उनकी दलील यह थी कि इतने लाख जनता ने उन्हें चुना है इसलिए वे अति सम्माननीय हैं उनके खिलाफ समाचार छापकर सरिता ने बहुत बड़ा पाप किया है। यह मामला जबलपुर हाईकोर्ट पहुंचा और हाईकोर्ट ने अपने फैसले में लिखा कि किसी का कितने भी मतों से जीतने का मतलब उसका बेदाग होना नहीं है। हाईकोर्ट ने लिखा कि चुनाव में मत और समर्थन मिलने के कई आधार होते हैं लेकिन वोटों की संख्या से कोई नैतिकता की अलंघ्य मूर्ति नहीं माना जा सकता।
इस दृष्टांत का स्मरण वर्तमान संदर्भ में समाजवादी पार्टी के हालिया सिल्वर जुबली सम्मेलन की चर्चा के लिए बेहद प्रासंगिक हो गया है। सिल्वर जुबली सम्मेलन में सपा की ओर से दूसरे दलों के कई तथाकथित सोशलिस्ट नेताओं को आमंत्रित किया गया था जिनमें एक प्रधानमंत्री रहे एचडी देवगौड़ा भी शामिल थे। वैसे तो देवगौड़ा का कोई हक इस पद पर नहीं बन रहा था लेकिन वीपी सिंह के लिए पहले प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव पारित किया गया तो उन्होंने अनिच्छा जाहिर कर दी। फिर भी जब उन पर दबाव बनाने की कोशिश की गई तो वीपी सिंह गायब हो गए जिससे उनके घर पहुंचे संयुक्त मोर्चा के नेताओं को वापस लौटना पड़ा। इसके बाद ज्योति बसु का नाम आया तो उनकी पार्टी माकपा के पोलित ब्यूरो ने फरमान सुना दिया कि बसु इस प्रस्ताव को नहीं स्वीकार सकते। मजबूरी में देवगौड़ा के नाम पर मुहर लगाई गई क्योंकि संयुक्त मोर्चे को सामाजिक न्याय का एक चक्र पूरा करने के लिए पिछड़े वर्ग के नेता को प्रधानमंत्री के रूप में पदासीन कराना अपरिहार्य लग रहा था। देश के सर्वोच्च कार्यकारी पद पर देवगौड़ा कितना डिजर्व करते थे इसके आंकलन के कई उदाहरण मौजूद हैं।
एक बार देवगौड़ा साहब किसी अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे। तमाम विदेशी संवाददाता उसमें मौजूद थे। देवगौड़ा के भाषण पर ब्रिटेन के एक पत्रकार ने अपने भारतीय पत्रकार से कहा कि क्या प्रधानमंत्री का अंग्रेजी में अनुवादित भाषण मिल सकता है तो उसके मित्र ने बताया कि पीएम तो अंग्रेजी में ही भाषण दे रहे हैं। उनकी कन्नड़ मिश्रित अंग्रेजी इतनी अद्भुत थी कि अंग्रेज भी नहीं समझ पाते थे कि वे किस भाषा में बोल रहे हैं। मुलायम सिंह के पास रक्षा मंत्री पद था लेकिन उन्होंने उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार से जिस तरह की अपेक्षाएं कीं अगर कहीं उन्हें गृहमंत्री पद का जिम्मा सौंप दिया जाता तो कितना बड़ा संवैधानिक संकट पैदा हो जाता खुद इस अहसास से देवगौड़ा बहुत विचलित रहे थे। बाद में देवगौड़ा से समर्थन वापस लेने का फैसला जब कांग्रेस ने किया तो मुलायम सिंह ने उनका बचाव करने के बजाय उन्हें रुखसत करने में कांग्रेस की मदद की। सही बात तो यह है कि देवगौड़ा को अस्थिर करने की साजिश के पीछे मुलायम सिंह ही थे जिन्होंने कांग्रेस को पर्दे के पीछे संमर्थन वापसी के लिए उकसाया था।
ऐसा नहीं है कि देवगौड़ा इस साजिश से नावाकिफ रहे हों लेकिन आज अगर वे यह कह रहे हैं कि उनके बाद मुलायम सिंह को प्रधानमंत्री होना था पर साजिश हुई जिसके विस्तार में वे नहीं जाना चाहते तो इसे उनकी धूर्तता की पराकाष्ठा कही जाएगी। अकेले देवगौड़ा ही नहीं दूसरी पार्टी के तमाम अन्य नेताओं ने भी मुलायम सिंह का बहुत महिमामंडन किया जबकि वे एक समय मुलायम सिंह द्वारा बहुत त्रस्त किए गए थे। निजी सत्ता को मजबूत करने के लिए मुलायम सिंह ने समाजवादी आंदोलन में अपने अलावा किसी नेता का वजूद न बचने देने के लिए काम किया जिसकी कीमत उन लोगों को चुकानी पड़ी थी। मुलायम सिंह अपने इस उद्देश्य में सफल भी रहे। उन्होंने सारे सिद्धांत ताक पर रखकर उत्तर प्रदेश में अपने को मजबूती के तौर पर स्थापित कर लिया और अब दूसरे समाजवादी नेता भी अतीत में अपने साथ हुए बर्ताव को भूलकर उनका गुणगान करने की मजबूरी पा रहे हैं और यह भ्रम पैदा कर रहे हैं कि वे अगुवाई करें तो हम सब मिलकर साम्प्रदायिक शक्तियों का उभार रोक सकते हैं। इससे ज्यादा बड़ी लफ्फाजी कोई नहीं हो सकती।
क्या मुलायम सिंह को महाकाय व्यक्तित्व में स्वीकार करने के पीछे सिर्फ इतना आधार है कि उन्होंने साम, दाम, दंड, भेद से आखिर राजनीतिक सफलता को अपना अनुचर बना लिया। यह दूसरी बात है कि अगर उनके समकालीन दूसरे नेता भी नैतिक, सैद्धांतिक संकोच को ताक पर रखकर उनसे प्रतिस्पर्धा करने में जुटते तो हो सकता है कि उनसे ज्यादा कामयाब साबित होते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया जिससे वह पिछड़ गए पर यह नहीं कहा जा सकता कि वे मूर्ख थे।
इस संदर्भ में टोपीवाला केस में जबलपुर हाईकोर्ट की रूलिंग बहुत मौजूं हो जाती है। मुलायम सिंह सफल हुए हैं मात्र इस नाते उन्हें अपने को समाजवाद और धर्म निरपेक्षता का चैंपियन बताने का हक नहीं मिल जाता। लोकतंत्र को अपनाने के बाद देश में जिस तरह की व्यवस्था का सपना देखा गया था वह सिर्फ इटोपिया नहीं था बल्कि उसे साकार किया जाना पूरी तरह सम्भव था। अगर पैसा और बाहुबल के आधार पर ही राजनैतिक सिद्धियां होतीं तो चौधरी चरण सिंह के जमाने में तमाम राज्यों में कांग्रेस का तंबू उखाड़कर संयुक्त सरकारें न बनतीं। माना कि यह उदाहरण पुराने जमाने का है लेकिन नये जमाने में भी दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का उदाहरण है जिन्होंने लोकतंत्र के साथ रेप किए बिना मुख्य धारा की पार्टियों की ऐसी-तैसी करके दिल्ली में सत्ता हासिल कर ली और अब पंजाब व गोवा में भी उनकी पार्टी सत्ता की प्रमुख खिलाड़ी बन गई है।
लोकतंत्र किसी व्यक्ति या परिवार की भक्ति और सेवा का नाम नहीं है वरना राजतंत्र क्या बुरा था, इसलिए समाजवादी पार्टी और मुलायम सिंह का मूल्यांकन करने के लिए व्यापक दृष्टि अपनानी पड़ेगी। बेहतर लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि व्यवस्था समाजवादी बने। किसी व्यक्ति के समाजवादी ब्रांड की व्यवस्था प्रभावी न हो। क्या, उत्तर प्रदेश की जनता इस चिंतन को स्वीकार करेगी।

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