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मोदी की नीयत पर सवाल उठने की वजहें क्या हैं?

मुक्त विचार
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सत्ता हमेशा भ्रष्ट होती है यह सर्वमान्य सूत्रवाक्य है इसीलिए साम्य़वादी इटोपिया में सत्ताविहीन व्यवस्था का स्वप्नलोक रचा गया है। इसमें एक और चीज जुड़ी है कि कोई भी व्यवस्था हो उसके संचालन के लिए किसी न किसी सत्ता की उपस्थिति अऩिवार्य है इसलिए कोई व्यवस्था पूर्णतया भ्रष्टाचारमुक्त हो सकती है, इसकी कल्पना किया जाना असम्भव है।
आज लोग कहते हैं कि आजादी के पहले और उसके बाद के कई दशकों तक ऊंची कुर्सी पर बैठे सारे लोग ईमानदार होते थे लेकिन यह सच नहीं है। प्रसिद्ध चिंतक और लेखक हंसराज रहबर ने अपनी आत्मकथा कई खंडों में प्रकाशित कराई जिसे पढ़कर विदित होता है कि 19 वीं शताब्दी के पहले उनके राज्य पंजाब में टीचर पैसा लेकर किसी भी छात्र को उत्तीर्ण करने और पैसा न मिलने पर ठीकठाक छात्र को अनुत्तीर्ण कर उसका करियर खराब करने में नहीं हिचकते थे। जब निरीह समझे जाने वाले मास्टर की भ्रष्टाचार के लिए मनमानी का यह आलम था तो बहुत ज्यादा शक्तियों से संपन्न पदाधिकारी क्या करते होंगे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। भारतीय पुलिस नाम की हिंदी में पुलिस के इतिहास पर लिखी गई पुस्तक बताती है कि अंग्रेजों ने जानबूझकर पुलिस की तनख्वाह बहुत कम रखने की नीति बनाई थी जिससे पुलिस अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए दमनकारी उपाय अपनाने को प्रेरित हो। अंदाजा लगाया जा सकता है कि ब्रिटिशकाल में पुलिस का चरित्र क्या होगा, लेकिन फिर भी लोग मानते हैं कि उस समय पुलिस में भी लोगों के अंदर मानवता का बहुत लिहाज था। पुलिस के अधिकारियों के अपने सिद्धांत थे और पैसे के लिए वे इस मामले में गिरने को आसानी से तैयार नहीं होते थे।
लेकिन आज भ्रष्टाचार एक ऐसा मुद्दा बन गया है जिसके अहसास से उपजा जनअसंतोष इतना तीव्र है जैसे पहले एकदम सतयुग का समय रहा हो और आज एकदम कलियुग आ गया हो। यह प्रतीति जानबूझकर किया गया अभिनय भी नहीं कही जा सकती। तात्पर्य यह है कि वर्तमान का भ्रष्टाचार कहीं बहुत ज्यादा दारुण है इसलिए लोग इसे सत्ता की तासीर भर मानकर बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं रह गए हैं।
भ्रष्टाचार आज केवल पदों पर बैठे लोगों तक सीमित नहीं है। समाज के हर खास के साथ हर आम आदमी की भी इसमें भागीदारी राम नाम की लूट के बतौर दिखाई दे रही है। स्वच्छ मानसिकता के निर्माण के संदर्भ में बहुजन समाज पार्टी का उल्लेख अब निरापद नहीं रह गया लेकिन यह मानना पड़ेगा कि काशीराम युग में वंचना और पददलन की जिस स्थिति के चलते हाशिए के लोगों ने अपना चरित्र खो दिया था और नतीजतन उन्हें चुनाव के समय दारू बांटकर लोकतंत्र को समर्थ लोग हाईजैक करने में सफल हो रहे थे उस पर मान्यवर की बहुजन के लिए स्वाभिमान की ललकार से काफी हद तक रोक लगी थी। सर्वहारा ने अपने वोट की नीलामी स्वाभिमान की जिंदगी का अवसर पाने की लड़ाई की खातिर बंद करने की जरूरत महसूस कर ली थी लेकिन वर्तमान का बिगाड़ यह है कि देश और प्रदेश की महापंचायतों के शातिर माननीयों से लेकर धरातल का सफेदपोश वर्ग तक अपने वोट की नीलामी में संलिप्त होकर भद्रलोक की नैतिक व्यवस्था के खोखलेपन को नंगा करने में जुट पड़ा है।
भ्रष्टाचार के इस भयावह रूप के दीदार की वजह से ही इंदिरा उत्तर की भारतीय राजनीति में माइलेज लेने का सबसे बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार के सफाये का नारा बन चुका है। वीपी सिंह ने विपक्ष में आकर इसी मुद्दे की दम पर न भूतो न भविष्यते बहुमत से सत्तारूढ़ हुई राजीव सरकार को रातोंरात जमीन सुंघा दी थी। मोदी सरकार के पदारूढ़ होने के पीछे भी सबसे प्रमुख भूमिका विदेशी बैंकों में जमा भारत के काले धन की वापसी की हुंकार निर्विवाद तौर पर मानी जाती है। इसलिए उनकी सरकार के पुराने पड़ने के साथ मतदाताओं की खुमारी जब उतरने लगी तो खतरे की आहट भांपकर मोदी सरकार द्वारा अचूक नुस्खे के रूप में काले धन के खिलाफ मोर्चा साधने की नौटंकी लाजिमी है।
नोटबंदी की क्रांतिकारी कार्रवाई उनकी इसी मंशा का उत्पाद है। लेकिन वितंडा एक अलग चीज है। बहुत गहराई में जाये बिना यह बात नोटबंदी के तूफान के हल्के पड़ने के साथ जाहिर होने लगी है कि भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने की किसी गम्भीर कोशिश की बजाय इस काम के पीछे कई निहित स्वार्थ हैं। उर्जित पटेल देश के सबसे बदनाम उद्योगपति अंबानी बंधुओं के घनिष्ट रिश्तेदार हैं। आरबीआई के गवर्नर के रूप में उनकी नियुक्ति और इसके तत्काल बाद आर्थिक वित्तीय क्षेत्र में किए गए बड़े उलट-पलट में क्या कोई रिश्ता है, इसकी जिज्ञासा आज सर्वत्र प्रबल हो रही है। यह भी विचित्र संयोग है कि जियो की लांचिंग में अंबानी ने जब खरबों के निवेश का संदिग्ध कदम उठाया उसी समय नोट बदल का फैसला लिया गया। घोटाले की गंध सूंघने के लिए इन संयोगों की कड़ियां जोड़े जाने का उपक्रम नोटबंदी के फैसले के तत्काल बाद ही शुरू हो गया था।
मोदी पहले ऐसे प्रधानमंत्री नहीं हैं जिनको बड़े उद्योगपतियों से अच्छे रिश्तों के आधार पर कठघरे में खड़ा किया जा रहा हो। डा. राममनोहर लोहिया नेहरू जी पर बिड़ला घराने के प्रति उनकी सरकार की मेहरबानी को लेकर संसद से लेकर सड़क तक जमकर बरसते थे। लेकिन जहां तक टाटा और बिड़ला का सवाल है अंबानी परिवार की कारगुजारियों से उनका कोई तालमेल नहीं जोड़ा जा सकता। टाटा और बिड़ला ने अपने ब्रांड की साख उत्पादों की गुणवत्ता के आधार पर बनाई। भारतीय संस्कृति में तो अर्थ को भी एक पुरुषार्थ माना गया है और बिड़ला व टाटा इसकी पुष्टि की स्वयंसिद्ध नजीर के रूप में देखे जा सकते हैं लेकिन अंबानी के साथ ऐसा नहीं है, उन्होंने औद्योगिक परमार्फेंस की वजह से नहीं सत्ता से नजदीकी बनाकर औद्योगिक व्यवसायिक जगत में शीर्षतम स्थान बनाया है। उनकी उत्थान यात्रा के नेपथ्य में सत्ता से नजदीकी की हैसियत के भरपूर दुरुपयोग की दास्तान लिखी हुई है जिसे अभी भी साफतौर पर पढ़ा जा सकता है। अंबानी घराने की आज तक कोई सेवा और उत्पाद ऐसा नहीं है जिसको डिस्टिंक्शन मार्क्स तो दूर पासिंग मार्क्स भी दिए जा सकें। फिर भी रिलायंस के शेयर बाजार में सबसे महंगे बने रहे तो इसके पीछे साजिशी तिकड़म का योगदान रहा है। सरकारी बैंकों में जमा आम लोगों की मेहनत के पैसे से रिलायंस के शेयर खरीद कर अंबानी की कम्पनी को चढ़ाया गया और यह तिकड़म देश की वित्तीय व्यवस्था पर लगातार भारी पड़ती रही।
इसके बावजूद अगर पीएम मोदी को अंबानी के साथ अपने रिश्ते पर गर्व है तो उनकी यह अंतरंगता निश्चित रूप से संदेह पैदा करने वाली है। मोदी आज ईमानदारी के नाम पर जब बहुत डींगें हांकते जा रहे हैं तो उन्हें याद दिलाना होगा कि सरकार और उद्योगपतियों के बीच ज्यादा प्रगाढ़ता को जनमानस नापाक गठबंधन के बतौर संज्ञान में लेता रहा है। इसी धारणा की वजह से मूल्यों की पक्षधर राजनीति ने नेताओं के लिए उद्योगों से दूरी बनाकर काम करने की आचार संहिता तय कर रखी थी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में वीपी सिंह के कार्यकाल में तत्कालीन गृहमंत्री ज्ञानी जैलसिंह लखनऊ आए थे जिनको इंदिरा गांधी की नाक का बाल माना जाता था। शराब कंपनी मोहन मीकिंस के मालिकों ने ज्ञानी जैलसिंह के सम्मान में डिनर आयोजित किया जिसमें उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल के सारे सदस्य और सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेता पहुंचे लेकिन आचार संहिता के कारण ही वीपी सिंह ने इस डिनर से किनारा कर लिया था जबकि जोखिम यह था कि उनके इस कदम से ज्ञानी जैलसिंह अगर नाराज हो जाते तो उनकी मुख्यमंत्री पद से छुट्टी हो सकती थी। वीपी सिंह ही नहीं पक्ष-विपक्ष में उस समय सार्वजनिक जीवन की उच्च परम्पराओं को मानने वाले कई नेता थे जिन्होंने हमेशा यह ख्याल रखा कि जनता को उनकी राजनीति किसी पूंजीपति, उद्योगपति के यहां गिरवी होने की गलतफहमी पैदा न हो पाए।
दुनिया की वित्तीय मामलों में अपने जमाने की सबसे बड़ी निजी खुफिया एजेंसी फेयरफैक्स की सेवाएं देश में काले धन की छानबीन के लिए जब ली गई थीं तो कहा जाता है कि अंबानी घराने का नाम उसने सबसे ऊपर रखा था लेकिन अंबानी पर कार्रवाई की नौबत आती इसके पहले ही यह घराना राजनीतिक प्रतिष्ठान पर हावी हो गया। अंबानी ने अपने खजाने का मुंह खोलकर जब चंद्रशेखऱ को पीएम बनाने में सुप्रीम पावर के बतौर अपनी हैसियत दिखाई थी तभी लोकतंत्र की बेचारगी का नजारा सामने आ गया था। चुनी हुई सत्ता के औद्योगिक शक्ति के सामने दोयम बन जाने की स्थिति किसी भी देश के लिए सबसे बड़ा दुर्भाग्य होती है लेकिन इस देश में यह हो रहा है। रिलायंस जैसे चंद औद्योगिक घरानों ने लाखों करोड़ रुपये का कर्जा बैंकों से निकालकर चुप्पी साध ली थी जिससे सरकारी बैंकें दीवालिया होने की कगार पर पहुंच गई थीं। नोटबंदी के फैसले से फिलहाल इतना हुआ है कि बैंकों की अल्पायु को टालने में सरकार सफल रही है लेकिन यह फैसला चहेते उद्योगपतियों के हितों की रक्षा मात्र के लिए लिए जाने की वजह से कितना तुगलकी है इस पर तो अब सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर तक ने यह कमेंट करके सरकार की फजीहत कर दी है कि नोटबंदी का अप्रत्याशित फैसला अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए किया गया सर्जिकल अटैक न होकर आम लोगों अंधाधुंध बमबारी की तरह है।
भ्रष्टाचार जैसी समस्या सुपरफीशियल यानी सतही गड़बड़ी नहीं है। जिस भावना से लोकतंत्र की राजनीतिक प्रणाली का प्रवर्तन किया गया है उस पर दुनिया के विकसित देशों में भी भ्रष्टाचार के चलते पानी फिर जाने का काम हो चुका है। उस पर तुर्रा यह है कि हमारा लोकतांत्रिक मॉडल तो अपने मौलिक स्थिति विकास का परिणाम न होकर विकसित देशों का आयातित उपादान है इसलिए विकसित देशों के लोकतंत्र की किन विशेषताओं को अपनाया जाए और किनको छोड़ दिया जाए, देश के कर्णधारों से इस मामले में चूजी होने की अपेक्षा की जाती है। विडम्बना यह है कि विकसित देशों के रूल अॉफ लॉ के मामलों में समझौताहीन व्यवस्था जैसे जिन गुणों को अपनाया जाना चाहिए उनमें तो कर्णधार लापरवाह हैं लेकिन चुनाव प्रचार को पूंजी का खेल बना देने की होड़ में वे अमेरिका से भी आगे निकलकर दिखाना चाहते हैं। जिससे औद्योगिक जगत पर उनकी निर्भरता बढ़ती जा रही है।
आर्थिक न्याय के लिए जरूरी है कि चुनाव प्रणाली को प्रचार के लिए अंधाधुंध खर्चे की बढ़ती कुरीति से उबारने की कोई ठोस पहल हो जिसमें प्रमुख उम्मीदवारों और पार्टियों को इसके लिए बनाए गए सरकारी फंड से अनुदान देने का प्रस्ताव नये सिरे से शामिल किया जा सकता है। हालांकि अभी तक स्थायी निदान की ऐसी किसी पहल में मोदी सरकार की कोई रुचि दिखाई नहीं दी है।

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