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शोशेबाजी से नहीं चलतीं सरकारें, क्या यह मानते हैं पीएम मोदी

मुक्त विचार
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चमत्कृत करने की कला व्यापार के लिए सिद्ध हो सकती है लेकिन जीवन के गम्भीर कार्य-व्यवहार में कृत्रिमता के इस आयाम के लिए कोई जगह नहीं है। चमत्कारप्रियता मनुष्य की कमजोरी है। जो लोग इसे कैश कराने में माहिर हैं वे इस हथकंडे से बहुत प्रेम रखते हैं। नोटबंदी के पीछे भी कहीं न कहीं चमत्कार जैसा इंप्रेशन डालकर लोगों को आकर्षित करके अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर हावी होने की मंशा कहीं न कहीं जरूर रही है लेकिन इसके परिणाम दूरगामी तौर पर सरकार के लिए बहुत अच्छे साबित होने वाले नहीं हैं। भले ही ताजा उप चुनावों में भाजपा को मिली बेहतर कामयाबी से यह जाहिर हो रहा हो कि पीएम नरेंद्र मोदी का यह सिक्का बहुत कामयाब रहा है।
अब इसमें कोई संदेह नहीं रह गया कि विमुद्रीकरण का फैसला अचानक लिया गया था। रिजर्व बैंक तक को इस मामले में अंधेरे में रखा गया इसीलिए जमा कराए गए नोटों की भरपाई के लिए नये नोटों को पर्याप्त मात्रा में छापने की तैयारी नहीं थी। अब जब सिर पर विपत्ति टूटी तो नये नोट छापने के लिए हड़बड़ी में टेंडर कराए गए। अभी फिलहाल जरूरत के केवल 6 प्रतिशत नोट प्रकाशित हो पा रहे हैं। पर्याप्त छपाई शुरू होने में प्रक्रियागत कारणों से अभी देर लगेगी।
नोटों की कमी ने हाहाकार की जो स्थिति पैदा की है उसकी चपेट में बड़े लोग नहीं आम आदमी है। उऩकी पूंजी जाम हो गई है। आम आदमी न तो व्यापार कर पा रहा है न बिटिया की शादी। नोट बदलने की भी सीमा तय कर दी गई है और नोट निकालने की भी।
दूसरी ओर इस आपाधापी ने भ्रष्टाचार के नये द्वार खोल दिए हैं। बैंकर्स कमीशन पर अघोषित सम्पत्ति वालों को 500 और 1000 के नोटों के बदले बेनामी वापसी करने में माल काट रहे हैं। वास्तविक जरूरतमंदों को न्यूनतम वैध नोट हासिल करने में भी लोहे के चने चबाने पड़ रहे हैं। सरकार की मंशा अगर साफ होती तो वह बैंकों के भ्रष्टाचार की सम्भावना को पहले ही भांप लेती और इसे रोकने के लिए उऩकी प्रभावी निगरानी की व्यवस्था कर देती लेकिन सरकार को तो तमाशा करने से सरोकार था।
इन पंक्तियों के लेखक ने पहले भी सरकार की भ्रष्टाचार रोकने की डींगों पर प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए बैंकों की कार्यप्रणाली को उदाहरण के रूप में सामने रखा था। बैंकों में किसान क्रेडिट कार्ड बनाने के लिए लोगों का जमकर शोषण होता है और इसके बाद इस पर कर्ज देने में भी भारी कमीशनखोरी की जाती है। यह सिलसिला पहले भी होता था और मोदी सरकार में भी इस पर कोई रोक नहीं लगी। इस सिलसिले की वजह से खेती के लिए घोषणा भले ही 7 प्रतिशत ब्याज पर कर्जा देने की हो लेकिन टेबिल के नीचे से कर्जा हासिल करने में किसानों को इतनी दक्षिणा देनी पड़ती है कि उसका मूल्य साहूकार के ब्याज से भी ज्यादा हो जाता है इसीलिए किसान पनप नहीं पा रहे। सरकार भ्रष्टाचार पर रोक के अपने अमूर्त दावों पर आत्ममुग्ध बनी हुई है जबकि प्रत्यक्ष भ्रष्टाचार से कराहते आम लोगों को उसके द्वारा अभी तक कोई सार्थक राहत नहीं दी जा सकी है। नोटबंदी के बाद बैंकों के भ्रष्टाचार की कष्टकारी मार और ज्यादा गहनता से लोग महसूस कर रहे हैं लेकिन सरकार इस ओर से उदासीनता ओढ़े हुए है।
सरकार को यह बात समझनी चाहिए कि कोल गेट और टू जी स्पेक्ट्रम के घोटाले भद्रलोक के लिए तूफान का कारण बन सकते हैं पर आम जनता के तो ऐसे मुद्दे सिर के ऊपर से गुजर जाते हैं। आम जनता तो भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन का तकाजा एक ऐसी अनुशासित व्यवस्था के लिए करती है जिसमें उसके अधिकारों का पूरी तरह संरक्षण सुनिश्चित हो। लोगों के सीधे सरोकार से जुड़े मामलों में खुली घूसखोरी लोकतंत्र और लोगों के मौलिक अधिकारों को व्यर्थ साबित कर देती है इसलिए एक कारगर सरकार की प्राथमिकता इस तरह के प्रशासनिक कदाचार पर रोक की होनी चाहिए लेकिन यह सरकार भी इस दायित्व को पूरा करने में फिलहाल विफल साबित हो रही है। केंद्रीय विभागों तक में सुविधा शुल्क के दस्तूर पर रोक न लग पाना इसका उदाहरण है।
नोटबंदी को सरकार ने काले धन और भ्रष्टाचार के उन्मूलन से जोड़ा है लेकिन उसका यह कदम इस दिशा में कोई बड़ी भूमिका अदा कर पा रहा हो इसे साबित करने के साक्ष्य जुटाने में उसे सफलता नहीं मिल पा रही। बैंकों में चंद लाख की अघोषित नकदी जमा करने जा रहे व्यापारियों की धरपकड़ से काला धन की रीढ़ पर चोट का सरकार का दावा दरअसल अतिश्योक्ति अलंकार की तरह है। दरअसल कस्बे स्तर के ठीकठाक व्यापारी के पास भी 50 लाख रुपये की अघोषित नकदी इस दौर में उसके अस्तित्व के लिए लाजिमी है। इसे समझने के लिए व्यापार के जटिल ताने-बाने पर गौर करना होगा। व्यापारी चाहे भी तो उसे सरकारी तंत्र साफ-सुथरा काम नहीं करने दे सकता। उदाहरण के तौर पर अगर कोई व्यापारी हर सामग्री या सेवा के मूल्य की पक्की रसीद देने लगे तो भी सेल्स टैक्स जैसे विभाग उससे माहवारी वसूलने से पीछे नहीं हट सकते। माहवारी का टारगेट भी अधिकारी का तबादला होने और नये अधिकारी के आने के बाद बढ़ जाता है। जिसकी वजह से व्यापारियों के लिए थोड़ी-बहुत हेराफेरी में काम निकालने की गुंजाइश भी खत्म हो चुकी है। ऐसे में वह अपना हिसाब-किताब हमेशा कैसे अपटूडेट रख सकता है इसीलिए व्यापारी अपने लेखेजोखे का प्रबंधन वित्तीय वर्ष की समाप्ति के समय सीए से कराता है। तब तक उसकी सारी आमदनी और खर्चे का ब्यौरा दो नम्बर में ही बना रहता है।
अगर व्यापारी चाहे भी तो उनके हाथ में व्यापार को नम्बर एक में करने के नाम पर कुछ नहीं है। जो सरकार यह चाहती है कि व्यापार की पूरी लिखा-पढ़ी पारदर्शी हो और सरकार अगर पाखंड न कर रही हो तो व्यापारियों की नस दबाने की बजाय उसे व्यवस्था के असली नियंताओं यानी नौकरशाहों पर डंडा चलाने की दिलेरी दिखानी पड़ेगी। आश्चर्य की बात यह है कि नोटबंदी के बाद आईएएस अधिकारियों में से किसी की अघोषित नकदी पकड़ने की कोई कामयाबी सरकार हासिल नहीं कर पाई है जबकि प्रमुख सचिव स्तर से लेकर जिलों के कलक्टर तक आईएएस अधिकारियों के पास आमदनी से कई गुना ज्यादा नकदी जमा है। अगर नोटबंदी के दो दिन बाद भारत सरकार से लेकर प्रदेश सरकार और जिलों में तैनात आईएएस अधिकारियों के बंगलों तक रेड डलवा दी जाती तो बदलने की तैयारी में एक जगह हर आईएएस अधिकारी द्वारा जमा कर लिए गए नकदी नोटों के बड़े खजाने को जब्त करने की कामयाबी हासिल हो जाती लेकिन जब सरकार चल ही आईएएस अधिकारियों के पैरों से रही है तो उसके लिए यह कैसे सम्भव था। जान लीजिए कि आईएएस अधिकारी अगर 70 प्रतिशत भी ईमानदारी से काम करने के लिए बाध्य हो जाएं तो न तो अधीनस्थ प्रशासन में और न व्यापारियों में यह कुव्वत है कि वे एक सीमा से ज्यादा अघोषित सम्पत्ति का संग्रह कर सकें। लेकिन आईएएस अधिकारियों को निरापद रखने में सरकार कोई कमी नहीं आने दे रही इसीलिए नोटबंदी मार्केटिंग टिप्स जैसे किसी चोंचले के रूप में आंका जाना स्वाभाविक ही है।

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