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भारत में लोगों का डीएनए बदलने की चौंकाने वाली आहट, कितनी हकीकत कितना फसाना

मुक्त विचार
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प्रसिद्ध विचारक रूसो का कहना था कि हर दौलतमंदी के पीछे अपराध की कोई न कोई काली दास्तान होती है। वामंपंथी विचारधारा भी पूंजीवाद को संसाधनों के अन्यायपूर्ण केंद्रीयकरण का परिणाम बताती रही है और क्रांति के जरिए समान आय व संसाधनों पर समान अधिकार का विकल्प परोसती रही है, लेकिन काम, धर्म और मोक्ष के साथ-साथ अर्थ को भी पुरुषार्थ के एक घटक के रूप में वंदित करने वाले इस देश में किसी की समृद्धि को लेकर कोई ऐसा अतिवाद लोगों के संस्कारों में नहीं है। किसी के वैभव के प्रति उसके भाग्य और उसकी योग्यता और मेहनत को सराहने का भाव भारतीय जनमानस में सहज तौर पर विद्यमान है। यही ग्रंथि वह वजह रही जिसकी वजह से भारत में छुटपुट सशस्त्र संघर्षों को छोड़कर आज तक कोई साम्यवादी क्रांति व्यापक रूप से फलित नहीं हो पाई है।
समाज में सम्पन्नता के शिखर पुरुषों के प्रति ऐसी उदारता वाले देश में काले धन के खिलाफ कोई हुंकार इतनी उत्तेजनापूर्ण हो सकती है इसकी कल्पना हाल के वर्षों को छोड़कर कभी नहीं की गई थी। काला धन को बढ़ाने और पोसने वाली सरकार होने की इमेज बनाने की सुनियोजित कोशिशों को लेकर इसी कारण मनमोहन का शासन प्रतिवाद करने के लिए बहुत गम्भीरता से सचेत नहीं हो पाया और यही उदासीनता उसके पतन का परिणाम रही। लोकसभा चुनाव में भाजपा की पक्षधर सारी वितंडतावादी शक्तियों ने विदेशों में जमा भारत के उच्चतम तबके के काले धन को वापस लाने की गर्जना करके ही निर्णायक बढ़त का आधार तैयार किया था। मोदी सरकार के गठन के बाद इस सरकार के लोग विदेशों में जमा काला धन को वापस लाने में लाचारी के चलते इसी वजह से बेहद डिफेंसिव हो रहे थे लेकिन पीएम मोदी ने नोटबंदी का ऐसा मास्टरस्ट्रोक लगाया कि विदेशों में जमा काला धन का मुद्दा लोगों के दिमाग से हवा हो गया और किसी मंत्रविद्य सम्मोहन में उलझे लोगों की तरह भारतीय आम जनमानस 500 और 1000 के पुराने नोटों के चलन से बाहर होने में अपने सारे अन्यायों का बदला मान बैठा है। हालांकि इस फैसले से रातोंरात करोड़पति और अरब व खरबपति बनने वाले सौभाग्यशालियों में से कोई भी रोटी का मोहताज होने वाला नहीं है लेकिन इन्होंने अकूत मुनाफा बटोरने के अपने तंत्र में जिन लाखों लोगों को पेट भरने लायक मजदूरी का रोजगार दे रखा था वे इनकी तात्कालिक तालाबंदी से बेमौत मरने की हालत में आ गए हैं।
कोई कह रहा है कि नोटबंदी से मची उथलपुथल को छह महीने में एक किनारा मिल जाएगा तो कोई कह रहा है कि एक साल में मिल जाएगा, जबकि जानकारों का अऩुमान यह है कि यह भूचाल इतना तीव्र है कि किसी स्थिरता को प्राप्त होने तक अगर अगर तीन-चार साल भी लग जाएं तो आश्चर्य़जनक नहीं होगा। जाहिर है कि इतने दिनों में सिफर से शिखर की गिनती पर पहुंचे लोकल से लगायित राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक के खुशनसीबों की केवल ग्रोथ रुक सकती है उनमें से कोई बदहाल और मोहताज होने वाला नहीं है, लेकिन अगर नोटबंदी का संक्रमणकाल इतना लम्बा चला तो रोज कमाने रोज खाने वाली बहुसंख्यक आबादी अपना अस्तित्व गंवा देगी जिससे सरकार को केवल एक ही उपलब्धि पर गर्व करने का मौका मिल सकता है कि उसने आबादी की समस्या को बहुत अहिंसक ढंग से हल कर लिया है।
बावजूद इसके किसी भी निष्पक्ष प्रेक्षक को यह मुगालता नहीं है कि उत्तर प्रदेश सहित कई महत्वपूर्ण राज्यों के सन्निकट चुनावों में नोटबंदी की विनाशलीला के इस अहसास से गुजरकर मतदाता भाजपा के साथ कोई अनर्थ करने वाले हैं। हकीकत तो यह है कि नोटबंदी के शुरू में मोदी की जनसभाओं में जो फीकापन महसूस किया गया था उसकी मय बोनस के भरपाई मुरादाबाद में भाजपा की परिवर्तन रैली के मौके पर मोदी की सभा में हुई परलक्षित नजर आई। मोदी ने नोटबंदी के जरिए अंजाम दी गई क्रांति को तार्किक परिणति तक पहुंचाने के लिए 50 दिन का समय मांगा है और मुरादाबाद की सभा के दिन तक इसमें से 25 दिन व्यतीत हो चुके थे। इस दौरान लोगों के किसी किस्म की राहत मिलने की बजाय दुश्वारियां क्लाइमेक्स पर पहुंच गई थीं और इन दुश्वारियों का घटाटोप अनन्तकाल तक न छंट पाने का निराशाजनक माहौल इस समय तक तारी है फिर भी मोदी के कारनामे के प्रति जनमानस का प्रचंड सकारात्मक आवेग अचम्भे में डाल देने वाला है।
भारतीय मिथकीय कहानियों में हमेशा झलकाया जाता रहा है कि आसुरी शक्तियां धर्मयुद्ध में मायावी कौशल के चलते लोगों को भ्रमित करके किंगकांग, दारा सिंह की फ्री स्टाइल कुश्तियों के दौर की तरह शुरुआत में इतनी बढ़त बनाने में सफल रहती हैं कि दैवीय पक्ष के लोगों का मनोबल धराशायी हो जाता है लेकिन अचानक स्थितियां पलटती हैं और आसुरी शक्तियों का मायाजाल वितीर्ण करके भगवान साधुओं को त्राण दिलाते हैं। यह मिथकीय रूपक इस बार किस पक्ष में चरितार्थ होने वाला है यह कहना मुश्किल है। धर्मयुद्ध में कौन धर्म पर है और कौन अधर्म पर, हर युग में इसका फैसला युद्ध के समय टटोलने को लेकर असमंजस की हालत रही है और बाद में जो विजेता हुआ उसी का धर्म प्रमाणिक करार दिया जाता रहा है। इस उथल-पुथल में भी ऐसा ही होगा। दैवीय पक्ष का निर्धारण युद्ध यानी उथल-पुथल के परिणाम से होने वाला है।
लेकिन इस सरकार के कर्णधार अपने दिल के अंदर जानते होंगे कि नोटबंदी से फिलहाल जो हवा बनी है वह तात्कालिक है और इसके अंतिम परिणाम को लेकर बहुत ही जोखिम भरी स्थितियां बन चुकी हैं। लेकिन मूल मुद्दा यह है कि वैभवशालिता के प्रति कोई दुराभाव न रखने वाले भारतीय मानस में वर्तमान में ऐसा क्या बदलाव आ गया जो कि उसके डीएनए बदल जाने की तरह प्रदर्शित हो रहा है और बड़े आदमियों को सड़क पर देखने के लिए उसे अपना सर्वनाश कराने तक में कोई डर नहीं लग रहा।
इस गुत्थी को समझने के लिए जाना होगा आजादी की लड़ाई के दौर में जिसे उस समय के कर्णधारों ने जनांदोलन में बदल दिया था। भारत के बच्चे-बच्चे के मन में अंग्रेजी सरकार के प्रति विद्रोह का उबाल इस आंदोलन ने पैदा कर दिया था और जिस ब्रिटिश निजाम का कभी सूरज नहीं डूबता था उसे अस्ताचलमुखी इसीलिए होना पड़ा था, लेकिन आजादी के कुछ ही दशकों के बाद स्वाधीनता संग्राम के पुरखों के बलिदानी संघर्ष की याद से उनके वंशज मुंह मोड़ते दिखाई देने लगे जब यह कहा जाने लगा कि ऐसी आजादी से तो अंग्रेजों का जमाना बहुत बेहतर था। आजादी के बाद के निजाम से यह ऊब केवल कुछ सिरफिरों तक नहीं थी बल्कि 90 का दशक आते-आते बीजू पटनायक जैसे स्थापित नेता तक इस विचार को बल देने के लिए सामने आ चुके थे। जबर्दस्त मोहभंग के इस मुकाम तक भारतीय समाज जिन कारणों से पहुंचा उनमें ही वर्तमान की सबसे बड़ी चुनौतियों का निदान तलाशने की कुंजी निहित है।
अंग्रेजी निजाम औपनिवेशिक होते हुए भी जवाबदेह और संवेदनशील व्यवस्था थी लेकिन आजादी को 15 अगस्त 1947 के बाद हर तरीके के अनुशासन और व्यवस्था से आजादी का पर्याय बनाने की कमर कस ली गई, जिसके चलते सर्वाइबल अॉफ फिटेस्ट की आदम व्यवस्था से भी ज्यादा बड़ा जंगलराज स्थापित होता चला गया। इस दौर में शिक्षा और चिकित्सा जैसी जीवन की बुनियादी व्यवस्थाएं तक लोगों की पहुंच से बाहर हो गईं। एक ओर साइकिल पर भी न चल पाने की हैसियत रखने वाले लोग शिक्षा के मंदिर बनाकर रातोंरात वायुयान से विहार करने तक में सक्षम बन गए। दूसरी ओर व्यवस्थाहीनता का आलम यह रहा कि बड़ी तादाद में स्कूलों-कॉलेजों के जरिए कुबेर का खजाना हासिल करने वाले फटीचरों के गांव-गलियों तक में पसर रही फौज को संज्ञान लेने वाला कोई तंत्र चाहे वह आयकर विभाग हो या विजिलेंस संगठन, कहीं नजर नहीं आया। इसी तरह सरकारी अस्पतालों में कितनी भी ऊंची तनख्वाह की पेशकश के बावजूद एक लिमिट तक मंथली आय करने वाले डाक्टर अरबों रुपयों की लागत के नर्सिंग होम खड़े करने लगे, लेकिन उनसे भी कोई सरकार कोई प्रशासन यह जवाब तलब करता नहीं दिखा कि मेरे भाई तुम्हारे हाथ कौन सा ऐसा अलादीन का चिराग लग गया है कि तुम अपनी फलती-फूलती रफ्तार के सापेक्ष टैक्स भरते तो कहीं नजर आये नहीं लेकिन फिर भी तुम्हारी सम्पन्नता की काया इतनी चौड़ी (विराटकाय) कैसे हो गई।
स्कूल-कॉलेज संचालक या डाक्टर अरबपति-खरबपति बनें इससे जलन करना भारतीय समाज अपने संस्कारों से कभी नहीं सीख सकता था, लेकिन अगर उसे पहली बार समाज के सम्पन्न वर्ग के प्रति आक्रोश पैदा हुआ तो इस वजह से कि उऩकी सम्पन्नता से उसके अस्तित्व पर बन आई। बेहतर डाक्टर सरकारी अस्पतालों से कई गुना ऊंची पगार पर नियोजित किए जाते और भारी-भरकम लागत का नर्सिंग होम उन्हें तनख्वाह देने की क्षमता के साथ धन्नासेठ बनाते होते तो यह स्थिति नहीं बनती। आधिकारिक वर्ग शिक्षण संस्थान और अस्पताल खड़े करता तो न सरकारी विजिलेंस महकमों के उंगली न उठाने पर सवाल खड़े होते और न ही समाज को इसमें कोई अनर्थ नजर आता। उद्यमिता से सम्पन्नता की मंजिल का सफर तय करने वाले प्रायः यह ध्यान रखते हैं कि वे धंधे में इतनी निष्ठुरता न बरतें जिससे समाज में उनके प्रति बगावत की हालत पैदा हो जाए लेकिन सम्पन्नता की अनाधिकार चेष्टाएं सफल होती हैं तो ऐसा मद पैदा होता है जो इस सतर्क बुद्धि को गंवा बैठता है।
शिक्षा और चिकित्सा का उदाहरण यहां इसलिए दिया गया है कि यह लोगों के सबसे जरूरी सरोकारों से जुड़े सेक्टर हैं लेकिन बर्बर व्यवस्था का यह आलम सर्वव्यापी रहा जो निरंकुश भ्रष्टाचार की इंतहा के रूप में सर्वत्र नमूदार है इसलिए भारतीय समाज हाल के दशकों में आतुर और उद्वेलित हुआ है कि गैर जवाबदेही की इस व्यवस्था को किस तरह उखाड़ा जाए। उसे लगता है कि अगर सम्पन्नता-समृद्धि और वैभव के कंगूरे डायनामाइट लगाकर उड़ा दिए जाएं तो भ्रष्टाचार का बीजनाश हो जाएगा लेकिन मोदी सरकार में इसकी इच्छाशक्ति नहीं है इसीलिए नोटबंदी जैसे उलझाऊ उपायों का सहारा उसने जनभावनाओं के तुष्टीकरण के लिए लिया है। क्या नोटबंदी के बाद निजी स्कूल-कॉलेजों और अस्पतालों में लोगों के दोहन में कमी आई है। क्या यूपी में नोटबंदी की प्रक्रिया के बीच स्वांस्थ्य विभाग की संविदा नियुक्तियों में अधिकारी नीलामी की अपनी हरकतों से बाज आए हैं। क्या नोटबंदी की प्रक्रिया को सकारात्मक धरातल प्रदान करने के सूत्रधार बैंक अधिकारी अपने ईमान को बुलंद करने का कोई जज्बा अपने अंदर जगा पा सके हैं। अगर नहीं तो काला धन के नाम की जनमानस की नफरत का मर्म न पकड़ पाने की चूक कर रही है मोदी सरकार, जो उसे बहुत महंगी साबित हो सकती है।
इन पंक्तियों के लेखक ने पहले भी कहा है कि व्यवस्था को भ्रष्टाचार की वजह से रसातल में पहुंचाने वाले महाप्रभुओं पर वार करने का साहस जब तक नहीं दिखाया जाएगा तब तक जनाकांक्षाएं संतुष्ट नहीं होगीं। इसमें सबसे बड़ा टारगेट होना चाहिए आईएएस अधिकारी, जो कि प्रशासन की धुरी हैं। वे सचिव की हैसियत में हों या कलेक्टर की हैसियत में, अगर उनमें 70 प्रतिशत भी ईमानदारी आ जाए तो अन्य विभागों में दम नहीं है कि वे मनमानी और भ्रष्टाचार का खेल जारी रख सकें। आईएएस तंत्र नौकरशाही के स्टील फ्रेमवर्क के बतौर अपनी पहचान के मुहावरे के मुताबिक मुद्रा साध ले तो राजनीतिक तंत्र भी सुधरने के लिए मजबूर हो जाएगा क्योंकि कोई शासनादेश मंत्री तो क्या प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी अपने हस्ताक्षर से जारी करने का अधिकार नहीं रखते। शासनादेश तो तभी प्रभावी होता है जब उसके निर्गत पत्र पर किसी आईएएस अधिकारी का हस्ताक्षर हो। रातोंरात सड़क छाप से अरबपति-खरबपति बनने से जादू को लेकर अगर व्यवस्था में कहीं टोकाटाकी नहीं है तो शासन किस काम का। लेकिन शासन इस चुनौती को स्वीकार किए बिना अगर काले धन की समाप्ति का सब्जबाग दिखा रहा है तो इससे बड़ी ठगी क्या हो सकती है।
अधिकतम आय और न्यूनतम आय के बीच अनुपात तय करने को समाज की स्वच्छ आर्थिक व्यवस्था के लिए आदर्श के रूप में प्रस्तुत करने वाले डा. लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय मिस्टर खामखां नहीं थे। एक क्रिकेटर को उसका समाज में इतना कौन सा बड़ा अहसान है जो करोड़ों रुपये का मेहनताना दिया जाए जबकि दूसरे खेलों के खिलाड़ियों को कुछ लाख रुपये के लिए भी तरसना पड़ता हो और यही बात फिल्मी दुनिया के सुपरस्टारों के मेहनताने के सम्बंध में भी कही जा सकती है। यह भी तो काले धन के अम्बार के स्रोत की व्यवस्थाएं हैं। कम से कम भाजपा जैसी अध्यात्म और धर्मवादी पार्टी के नेताओं को तो इंद्रजाल के रूप में निंदित की जाने वाली ग्लैमर की दुनिया के छुट्टा व्यापार पर नकेल डालने की कोशिश करनी ही चाहिए। यह सब नहीं हो रहा, इसलिए अगर नोटबंदी को कुछ वर्गों की दुरभिसंधि से जोड़ा जा रहा है तो गलत क्या है।

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