Menu
blogid : 11660 postid : 1299809

कौन सी समाजवादी क्रांति की अभीप्सा में नेताजी को स्टार प्रचारक की शक्ल में सूझे अमर सिंह

मुक्त विचार
मुक्त विचार
  • 478 Posts
  • 412 Comments

अमर सिंह एक अच्छे फंड मैनेजर और लाइजनर तो हो सकते हैं लेकिन उनकी कोई मॉस अपील है इस बात को साबित करने की कोशिश बेमानी है। इसके बावजूद सपा के स्टार प्रचारकों की सूची में अमर सिंह का नाम शामिल कराया गया है। समझ में नहीं आता कि सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव क्या साबित करना चाहते हैं। बहरहाल मुलायम सिंह की मंशा जो भी हो लेकिन सपा में द्वंद्व के नये अध्याय के सूत्रपात में उनकी यह मंशा आग में घी जैसा दाहक और तुरण का काम करेगी।
जो जीता वही सिकंदर, इसकी कहावत व्यवहारिक वास्तविकता की उपज है और सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह के संदर्भ में तो यही कहावत किसी भी कामयाबी का मूल मंत्र है। मुलायम सिंह जिस दौर के नेता हैं उसमें सफलता के लिए युद्ध और प्रेम में सब कुछ जायज है, का सूत्र कदापि मान्य नहीं था। लेकिन कोई मुलायम सिंह को दुनियादार कह सकता है और कोई पथभ्रष्ट, पर मुलायम सिंह ने सफलता के लिए किसी लक्ष्मण रेखा को अपनी बाधा नहीं बनने दिया और इसके बावजूद जनमानस में अस्वीकार होने की बजाय यूपी की राजनीति में शिखरपुरुष के रूप में अपने आपको स्थापित करने में उन्होंने कामयाबी हासिल की। यह एक विद्रूप सच है।
मुलायम सिंह के अटपटे बयानों और फैसलों को लेकर आजकल उम्र सम्बंधी तमाम समस्याओं का जिक्र होने लगा है। मानवीय मनोविज्ञान की जटिलताओं को समझने वाले एक उम्र के बाद मानसिक संतुलन में डगमगाहट की स्थिति को सहज मानते हैं। यह अनुमान मुलायम सिंह के संदर्भ में कितना प्रयोजनीय है, इस पर हम कोई टिप्पणी नहीं करेंगे लेकिन यह सही है कि इन दिनों मुलायम सिंह पर उपदेश कुशल बहुतेरे की कहावत को भूलकर युवाओं को बहुत ज्यादा उपदेश देने के शौकीन हो गए हैं। जबकि इन उपदेशों का अमल उन्होंने अपने खुद के जीवन में कभी नहीं दिखाया। जैसे कि मुलायम सिंह नौजवानों से कहते हैं कि सिर्फ नारे लगाने से बात बनने वाली नहीं है। समाजवादी पार्टी से जुड़े युवाओं को लोहिया और सोशलिस्ट विचारधारा के विद्वानों को गहराई से पढ़ना चाहिए तभी ढंग की राजनीति हो पाएगी।
अगर समाजवादी विचारधारा के अनुशीलन में मुलायम सिंह की इतनी निष्ठा होती तो क्या यह सम्भव था कि उनकी पार्टी के कलेवर में अमर सिंह को आमुख बनाने की वे सोच भी नहीं पाते। अमर सिंह समाजवादी पार्टी के लिए आज ब्रांड एंबेसडर जैसा महत्व रखने लगे हैं लेकिन यह नई या कुछ समय की स्थिति नहीं है। छोटे लोहिया के खिताब से विभूषित जनेश्वर मिश्र के जीवित रहते हुए ही अमर सिंह समाजवादी पार्टी के स्टेटस सिंबल के रूप में कहीं न कहीं स्वीकार किए जा चुके थे। तब तो समाजवादी पार्टी पूरी तरह से कारपोरेट पार्टी के रूप में तब्दील भी नहीं हो पाई थी। पार्टी खड़ी करने के लिए मुलायम सिंह ने सोशलिस्ट आयडोलॉग में शुमार तमाम नेताओं को अपनी टीम में जोड़ा था। यह नेता मुलायम सिंह का उनके मुंह पर प्रतिवाद करने का साहस रखते थे और उनके अपने कद और अपनी पहचान की वजह से मुलायम सिंह उनकी सुनने को अपने को मजबूर पाते थे। लेकिन जल्द ही ऐसा दिन समाजवादी पार्टी में आ चुका था जिसमें मुलायम सिंह का प्रतिवाद न किया जा सके। जनेश्वर मिश्र जैसे नेता भी मार्गदर्शक की हैसियत खोकर कब मुलायम सिंह के अनुचर की भूमिका में पहुंच गए, यह अंदाजा किसी को नहीं हो सका।
पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की इस दुर्दशा का मंत्र क्या मुलायम सिंह ने लोहिया की किसी किताब को पढ़कर सीखा था। लोहियावाद मुलायम सिंह की समाजवादी मिठाई में केवल सजावटी वर्क में बचा रह गया था। पुराने जमाने के सारे सोशलिस्ट महारथी टीम मुलायम के मेम्बर बनने के बाद कौरवों की महासभा के महारथियों से अलग कुछ नहीं रह गए थे। ऐसी पार्टी में पढ़ने-पढ़ाने का कुछ मतलब नहीं हो सकता। खासतौर से लोहिया को पढ़कर तो ऐसी पार्टी के लोग अपनी जहनियत को ही खराब करेंगे। मुलायम सिंह इस कारण यथार्थ में कुछ हैं लेकिन वे नौजवान पीढ़ी के सामने विचारधारा का ही दंड पेलते रहते हैं। इसलिए सोशलिस्ट दर्शन के सर्वथा विलोम अमर सिंह सपा की पहचान बना दिए गए तो पार्टी में कोई विद्रोह नहीं हो सका। यह दूसरी बात है कि आगे चलकर खुद अमर सिंह ने ही मुलायम सिंह से विद्रोह कर दिया था। जिसके कारण को लेकर तमाम तरह की किंवदंतियां प्रचलित हुईं।
सच जो भी हो पर याराने से दुश्मनी में रिश्ते तब्दील होने के बाद अमर सिंह ने मुलायम सिंह के लिए ऐसी-ऐसी बातें कहीं कि कोई कल्पना नहीं कर सकता था कि कभी अब दोनों के बीच में पहले जैसी अंडरस्टैंडिंग आगे चलकर किसी समय बन पाएगी। अमर सिंह जब किसी के खिलाफ बोलते हैं तो बहुत प्रकल्प हो जाते हैं। मुलायम सिंह के मामले में भी वे अपवाद नहीं रहे। अमर सिंह को बहुत ज्यादा शेर याद हैं और कौन से प्रसंग में कब कौन सा शेर फिट होगा यह जानने की महारत उनसे ज्यादा किसी में नहीं है। लेकिन शेरो-शायरी के इस कद्रदान ने नेताजी से नाराजगी चुकाने के लिए हिंदुस्तान के सबसे बड़े शायरों में से एक बशीर बद्र की एक शायरी के नुक्ते का कोई ख्याल नहीं किया। जिसमें उन्होंने लिखा था कि दुश्मनी जमकर करो लेकिन यह गुंजाइश रहे जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों। वैसे भी अमर सिंह और शर्मिंदगी के बीच कोई रिश्ता हो भी नहीं सकता।
उत्तर विचारधारा की राजनीति के भारत में सबसे टिपिकल उदाहरण बने मुलायम सिंह के राजनीतिक विचलन का एक नमूना अमर सिंह को खांटी राजनीतिज्ञों के ऊपर तरजीह देकर पार्टी के पहचान पुरुष का दर्जा दिया जाना है। तो अन्य सेक्टरों में भी उन्होंने किसी सिद्धांत और विचारधारा से बंधे बिना कार्य करने की उन्मुक्त शैली अपनाई। इसी के चलते समाजवादी पार्टी पर अपराधियों और धन्नासेठों को राजनीति के शीर्ष पदों तक पहुंचाने का घृणित आरोप लगा। जिताऊ को टिकट देने के नाम पर समाज में अशांति और अराजकता पैदा करने वालों को माननीय बनाने के सबसे ज्यादा जतन मुलायम सिंह ने किए। लेकिन उनके बेटे होते हुए भी अखिलेश ने बहुत जल्दी ताड़ लिया कि यह तरीका आने वाले दिनों की राजनीति में अप्रासंगिक करार दे दिया जाएगा।
विकसित होते लोकतंत्र में परिष्कृत राजनीतिक शैली की जरूरत होती है। इसी समझदारी के चलते अखिलेश 2012 के विधानसभा चुनाव के समय से ही समाजवादी पार्टी को अपराधियों की पार्टी की इमेज से उबारने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। उन्होंने डीपी यादव के टिकट के मसले में इसी स्टैंड के चलते मोहन सिंह जैसे समाजवादी आयडियोलॉग तक को नीचा दिखाकर परे करने में संकोच नहीं किया था, लेकिन आज समाजवादी पार्टी में जो हो रहा है उसमें इस ख्याल की कोई परवाह नहीं रह गई है जबकि मुलायम सिंह तक को यह अहसास है कि उनके बेटे ने समाजवादी पार्टी को नये जमाने की जरूरतों के मुताबिक गढ़ने की जो कोशिश की है वह गलत नहीं है। लेकिन शिवपाल ने जब इलाहाबाद के जाने-माने माफिया अतीक अहमद को कानपुर की कैंट सीट से समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार बनाने की घोषणा की तो मुलायम सिंह अपने बेटे का पक्ष लेने के लिए सामने नहीं आ सके।
इस बीच समाजवादी पार्टी में कई और अंदरूनी समीकरण भी प्रभावित हुए हैं। प्रो. रामगोपाल यादव अभी तक मुलायम सिंह की निरंकुश कारगुजारियों को भी टोक देने का हौसला रखते रहे थे लेकिन उन्होंने परिस्थितियों से समझौता स्वीकार कर लिया है। बाहुबलियों को टिकट देने में परहेज की अखिलेश की नीति का समर्थन करने की उम्मीद जिन लोगों से की जा रही थी वे अचानक खामोश हो गए। अतीक अहमद के टिकट से जुड़े सवाल पर रामगोपाल यादव ने भी प्रतिवाद करने की बजाय यह कह दिया कि कौन सी पार्टी है जो बाहुबलियों को जिताऊ होने की वजह से उम्मीदवार बनाते समय सोच-विचार करती हो। रामगोपाल यादव की अखिलेश से कई बार वार्ता हो चुकी है और अमर सिंह के साथ भी उनकी संसद की कैंटीन में लम्बी बातचीत होती देखी गई है।
मुलायम सिंह ने स्टार प्रचारकों की सूची में अमर सिंह का नाम भी शामिल करने की घोषणा जानबूझ कर रामगोपाल यादव के हस्ताक्षर से प्रेस को पहुंचाई। इसके पहले यह बताया जा चुका है कि अखिलेश के एक और मेनटौर आजम खां के बेटे को विधानसभा का टिकट देकर उन्हें भी न्यूटल करने की कोशिश सपा हाईकमान ने की और इसमें कुछ हद तक उसे सफलता भी मिली है। जाहिर है कि अखिलेश के खिलाफ लगातार पेशबंदी जारी है इसलिए समाजवादी पार्टी के उत्तर प्रदेश में भविष्य को लेकर ऊहापोह की स्थितियां गहराती जा रही हैं। अपने ही पिता द्वारा किए जा रहे तियापांच से अखिलेश हो सकता है कि पार्टी में अलग-थलग पड़ जाएं लेकिन सवाल यह है कि राजनीतिक सड़ांध के मोह से छुटकारा न पाने पर क्या सपा सुप्रीमो और पार्टी के अन्य कर्ताधर्ता खुद को अलग स्थिति में ढकेलने की गलती नहीं कर रहे हैं?

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply