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चीन! कम्युनिज्म के चोले में साम्राज्यवादी और मुनाफाखोर चरित्र

मुक्त विचार
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कुख्यात आतंकवादी मौलाना मसूद अजहर के जैशे मोहम्मद संगठन पर अंतरराष्ट्रीय पाबंदी लगाने की भारतीय कोशिशों को चीन किसी भी कीमत पर कामयाब नहीं होने दे रहा जबकि सारी दुनिया जानती है कि मसूद अजहर पर पाबंदी कितनी जरूरी है, क्योंकि इस्लाम के आतंकीकरण की उसकी कारगुजारी के चलते न केवल भारत को उसकी वजह से खतरे का सामना करना पड़ रहा है बल्कि मानवता के ऐसे अपराधियों के रहते हुए दुनिया के अन्य देश भी आतंकवाद से बेफिक्र होकर नहीं जी सकते। ऐसा नहीं है कि चीन को भी मौलाना मसूद अजहर के बारे में कोई गलतफहमी हो लेकिन चीन का मानवता और विश्व शांति से कोई लेनादेना नहीं है। कम्युनिज्म का चोला ओढ़ लेने के बावजूद चीन का चरित्र पूरी तरह साम्राज्यवादी और मुनाफाखोर है। जिसके चलते भारत उसके दुराग्रह का शिकार बना हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भक्त यह साबित करने में जुटे हुए हैं कि उनके हाथ में देश की बागडोर आ जाने के बाद सारी दुनिया में भारत का डंका बजने लगा है और अमेरिकी राष्ट्रपति सहित दुनिया के हर ताकतवर देश का हुक्मरान भारत के चरण पखारने को आतुर हो गया है। यह खामख्याली मोदी के प्रति रूमानी लगाव की अतिरंजना का परिणाम है जबकि वास्तविकता यह है कि भारत अभी भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर लाचार हालत में है। अमेरिका ने अगर उसको महत्व देना शुरू किया है तो उसकी वजह यह नहीं है कि मोदी के कार्यकाल में कोई ऐसा करिश्मा हो गया हो जिससे वह भारत के दबदबे के आगे झुकने के लिए अपने को मजबूर पा रहा है। वास्तविकता यह है कि अमेरिका का भारत के प्रति अतिरिक्त मान-सम्मान दिखावा है जो एक मोटे ग्राहक पर कमंद फेंकने की रणनीति से अधिक महत्व नहीं रखता।
चीन में जनक्रांति भारत की आजादी के एक वर्ष बाद हुई थी। जिस समय चीन में माओत्से तुंग ने कम्युनिस्ट शासन की स्थापना की थी उस समय उन्हें विरासत में एक ऐसा देश मिला था जिसे अफीमचियों का देश कहा जाता था, लेकिन सर्वहारा की तानाशाही व्यवस्था ने चीन का कायाकल्प कर उसे दुनिया के सबसे दबंग देश के रूप में तब्दील कर दिया। भारत की तो सानी क्या है, चीन तो अमेरिका की भी कोई बिसात नहीं समझ रहा। ट्रम्प के अमेरिका के राष्ट्रपति चुन जाने के बाद भारतीय मीडिया में ऐसा इंप्रैशन दिया जा रहा था जैसे चीन की बोलती बंद हो गई हो लेकिन कोरिया सीमा के निकट बुहाई सागर में चीन द्वारा लाइव फायर ड्रिल करके अमेरिका को खुली चुनौती दी गई ताकि पदारोहण के पहले ही ट्रम्प को वह अपनी ताकत का अहसास करा सके। चीन के इस दुस्साहस के बाद अमेरिकी प्रशासन के लोगों में भी माथे पर चिंता की लकीरें देखी जा रही हैं।
वैसे चीन इतना शहजोर कैसे बना। भारत के सत्ताधारियों को इससे सीख लेनी चाहिए। भारत में वर्तमान वर्गसत्ता को कम्युनिज्म से बहुत ज्यादा घृणा है और उसने ऐसा प्रचारित कर रखा है मानो मार्क्स के विचार भारत के प्रति बहुत शत्रुतापूर्ण रहे हों जबकि मार्क्स ने इंग्लैंड के श्रमिक वर्ग के लिए भारत की आजादी की लड़ाई को लेकर लिखा था कि उसे अपने हितों को इंग्लैंड के शासक वर्ग के हितों से अलग करके देखना चाहिए। इंग्लैंड के श्रमिकों को शोषण से मुक्ति मिले, इसके लिए उनके द्वारा भारत की आजादी की लड़ाई का समर्थन करना बेहद जरूरी है। लेकिन चीन की भारत विरोधी नीति और कारगुजारी को इसके बावजूद कम्युनिस्ट दर्शन की उपज के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जबकि अगर कम्युनिज्म के दृष्टिकोण से देखें तो चीन इस मामले में कुजात साबित हो सकता है।
कम्युनिस्ट दर्शन में मजदूरों के अंतरराष्ट्रीय बिरादराने की बात है इसलिए सोवियत संघ जब तक था उसके द्वारा दुनिया भर के मजदूरों को जोड़कर हर देश में उनकी सरकार बनवाने के लिए क्रांतिकारी आयोजनाओं पर भारी बजट खर्च किया जाता था, लेकिन चीन के लिए संकीर्ण राष्ट्रीय प्रभुत्व किसी भी अंतरराष्ट्रीय बिरादराने से ऊपर है। इसीलिए शीतयुद्ध के दौर में चीन ने सोवियत खेमे से जुड़ने की बजाय पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के प्रतीक कम्युनिज्म के वर्गशत्रुओं के सबसे बड़े किलेदार अमेरिका से दोस्ती गांठी और कम्युनिस्ट आंदोलन की वैश्विक लहर को खुलेआम कमजोर किया। लेकिन राष्ट्रवाद के बारे में कैसी प्रखर समझ होनी चाहिए इस बारे में चीन ने नायाब उदाहरण प्रस्तुत किया है। कई बार कामयाब शत्रु के फार्मूलों का अऩुकरण भी जरूरी हो जाता है। कम से कम राष्ट्रवाद के मामले में तो चीन को लेकर भारत के लोगों को यह बात ध्यान में रखनी ही चाहिए।
चीन पाकिस्तान का कोई बहुत हितैषी नहीं है और न ही उसे इस्लाम से कोई राग है। सही बात तो यह है कि चीन में मुसलमानों की धार्मिक स्वतंत्रता का जो दमन हुआ है वह उसके इस्लाम के प्रति जबर्दस्त बैर भाव की मानसिकता को दर्शाता है। उधर, पाकिस्तान का समझदार तबका अपने देश में चीन के व्यापारिक साम्राज्य की इजारेदारी के चलते होने वाले दूरगामी परिणामों को लेकर बेहद चिंतित है और पाकिस्तान के हुक्मरानों को इस बात के लिए आगाह भी कर रहा है पर जब सहोदर जलन के शिकार हो जाएं तो भस्मासुर भी उनके सामने मात हो जाता है। पाकिस्तान की दशा कुछ ऐसी ही है। इसलिए चीन के शिकंजे में फंसकर वह जानबूझकर कुएं में कूदने की तैयारी में लगा है।
मौलाना मसूद अजहर पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध के भारत के प्रस्ताव को दो बार चीन वीटो कर चुका है और अब खबरें यह आ रही हैं कि उसने भारत के इस प्रस्ताव को हमेशा के लिए रद्द कराने की ठान ली है, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र में परमाणु सम्पन्न देश होने के नाते उसे यह विशेषाधिकार प्राप्त है। चीन से इस तरह की शह पाकर पाकिस्तान के विध्वंसक संगठनों और व्यक्तियों का मनोबल काफी बुलंद हो जाने का अनुमान है जिससे भारत में आतंकी खतरे बढ़ सकते हैं।
अकेला मसूद अजहर पर प्रतिबंध का ही मामला नहीं है, चीन ने हाल के दिनों में भी भारतीयों को आघात पहुंचाने की श्रंखलाबद्ध कार्रवाइयां की हैं। चीन संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद की स्थायी परिषद में भारत की सदस्यता में तो रोढ़े अटका ही रहा है परमाणु शक्ति संपन्न क्लब की सदस्यता के मामले में भी सारी दुनिया के समर्थन के बावजूद चीन ही एकमात्र बाधा बना हुआ है। उरी के सैन्य शिविर पर पाक पोषित आत्मघाती आतंकवादियों के हमले के बाद भारत सरकार ने सिंधु जल समझौते के बारे में पुनर्विचार का संकेत दिया था लेकिन भारत पाकिस्तान का पानी बंद कर पाता इसके पहले ही चीन ने अपने यहां से भारत के लिए जाने वाले पानी को बंद कर डाला। चाहे जमाना मनमोहन सिंह का रहा हो या वर्तमान में मोदी साहब का, चीन के सामने भारत की स्थिति कातर है इसलिए चीन की इन चुनौतीपूर्ण हरकतों पर उसे मन मसोस कर रह जाना पड़ता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के सबसे फास्ट खिलाड़ी के रूप में देश में चाहे कितनी भी छवि बनाए हों लेकिन वास्तविकता के धरातल पर वैश्विक मंच पर भारत को कमजोर स्थिति से उबार पाने में वे कोई बहुत सार्थक प्रयास नहीं कर पाए हैं। उन्होंने अमेरिका के साथ निकटता बढ़ाई तो रूस पाकिस्तान का पक्षधर बन गया। अब रूस, चीन और पाकिस्तान की त्रयी भारत के लिए एक नई मुसीबत बन गई है। हालांकि मोदी की विदेश नीति को कमतर बताकर उनकी छवि हेय बनाने की हमारी कोई मंशा नहीं है। दरअसल भारत के साथ जो बर्ताव हो रहा है उसका सम्बंध व्यक्ति विशेष से जोड़ने का कोई अर्थ नहीं है। मुख्य बात यह है कि भारत में सरकार कोई भी हो लेकिन देश के रूप में चीन द्वारा भारत को नीचा दिखाने का प्रयास बराबर किया गया है। इसके पीछे सिर्फ एक ही कारण है कि चीन यह धारणा रखता है कि जब एशिया में उसका एकक्षत्र प्रभुत्व कायम रहेगा तभी वह सारी दुनिया में दादागीरी कर पाएगा। भारत में सुकून होना उसे ऐसा लगता है कि एशिया में प्रभुत्व के मामले में उसका एक ताकतवर प्रतिद्वंद्वी खड़ा होता जा रहा है। इसलिए भारत को बर्दाश्त करना उसे कतई गवारा नहीं है।
बहरहाल विदेश नीति के मोर्चे पर प्रोपेगंडा करने की बजाय भारत सरकार को ऐसी वास्तविक नीति अपनानी पड़ेगी जिससे किसी दूसरे देश को उसे सदमा पहुंचाने की जुर्रत न हो। इसके लिए राष्ट्रीय हितों के मामले में चीन जैसा बेबाक रवैया भारत में भी जरूरी है। भारत की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह औपनिवेशिक विरासत में मिली हीन भावना से अपने को उबार नहीं पा रहा। क्रिकेट के उदाहरण से ही इसको समझ लें। क्रिकेट की न तो भारत जैसे देश के लिए सार्थक खेल नीति की दृष्टि से कोई उपयोगिता है और न ही यह उसके स्वाभिमान के अऩुकूल है क्योंकि क्रिकेट खेलने वाले देश की पहचान अतीत में इंग्लैंड के गुलाम रहे देश के रूप में उजागर होती है। इसीलिए चीन ने जनक्रांति के बाद अंतरराष्ट्रीय फैशन का पिछलग्गू बनने की बजाय एक झटके में क्रिकेट का जूड़ा उतार फेंका और जिम्नास्ट गेमों पर पूरा जोर लगाकर अपनी नई नस्ल को वास्तविक रूप से संवारने वाली सार्थक खेल नीति पर अमल शुरू कराया। इन चीजों का भले ही प्रतीकात्मक महत्व भर हो लेकिन ऐसे ही प्रतीकों से मानसिकता का निर्माण होता है इसलिए पश्चिम के बाजारी स्वार्थों से प्रेरित फैशन के अंधानुकरण की बजाय यथार्थ तौर पर अपने हितों के अनुकूल रीति-नीति का निर्धारण करने का आत्मबल भारतीयों को भी संजोने की जरूरत है। अपने दबदबे को किसी भी देश की हेकड़ी से ऊपर करने के लिए यह अनिवार्य और अपरिहार्य है।

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